हिंसा, दमन और तानाशाही है वामपंथी विचारधारा का असल चेहरा

वामपंथी विचारधारा का एक पाखण्ड यह भी है कि इसके नीति-नियंता निजी जीवन में तो आकंठ भोग-विलास में डूबे रहते हैं और सार्वजनिक जीवन में शुचिता और त्याग की लफ़्फ़ाज़ी करते नज़र आते हैं। पंचसितारा सुविधाओं से लैस  वातानुकूलित कक्षों में बर्फ और सोडे के साथ रंगीन पेय से गला तर करते हुए देश-विदेश का तख्ता-पलट करने का दंभ भरने वाले इन नकली क्रांतिकारियों की वास्तविकता सुई चुभे गुब्बारे जैसी है। ये सामान्य-सा वैचारिक प्रतिरोध नहीं झेल सकते, इसलिए हिंसा का सुरक्षा-कवच तैयार रखते है।

वामपंथी विचारधारा का एक पाखण्ड यह भी है कि इसके नीति-नियंता निजी जीवन में तो आकंठ भोग-विलास में डूबे रहते हैं और सार्वजनिक जीवन में शुचिता और त्याग की लफ़्फ़ाज़ी करते नज़र आते हैं। पंचसितारा सुविधाओं से लैस  वातानुकूलित कक्षों में बर्फ और सोडे के साथ रंगीन पेय से गला तर करते हुए देश-विदेश का तख्ता-पलट करने का दंभ भरने वाले इन नकली क्रांतिकारियों की वास्तविकता सुई चुभे गुब्बारे जैसी है।

ये सामान्य-सा वैचारिक प्रतिरोध नहीं झेल सकते, इसलिए हिंसा का सुरक्षा-कवच तैयार रखते है। मेहनतकश लोगों के पसीने से इन्हें बू आती है, उनके साथ खड़े होकर उनकी भाषा में बात करना इन्हें पिछड़ापन लगता है। येन-केन-प्रकारेण सत्ता से चिपककर सुविधाएँ लपक लेने की लोलुप मनोवृत्ति ने इनकी रही-सही धार भी कुंद कर दी है। वर्ग-विहीन समाज की स्थापना एक यूटोपिया है, जिसके आसान शिकार भोले-भाले युवा बनते हैं, जो जीवन की वास्तविकताओं से अनभिज्ञ होते हैं।

इतना ही नहीं, अर्थशास्त्र के तमाम विद्वान एक स्वर से साम्यवादी अर्थव्यवस्था की आत्मघाती विसंगतियों और कमजोरियों के बारे में लिख चुके हैं, यह व्यवस्था अप्राकृतिक और अस्थिर होती है। जड़ से ही खोखली इन आर्थिक नीतियों के कारण तमाम साम्यवादी देशों और राज्यों की अर्थव्यवस्था का बुरा हाल रहता है और इसकी सबसे ज्यादा कीमत निम्न और मध्यम वर्ग के लोग चुकाते हैं। फिर अगर इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ लोगों में असंतोष उभरता है तो उसकी अभिव्यक्ति तक होने से पहले ही उनका क्रूरता से दमन कर दिया जाता है। जिस माओ के नाम पर बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ और बिहार-झारखंड में यहां के प्रगतिवादी वामपंथी खूनी खेल खेल रहे हैं, चीन में उसी माओ के शासनकाल में दो करोड़ से भी ज्यादा लोग सरकारी नीतियों से उपजे अकाल में मारे गए और लगभग पच्चीस लाख लोगों को वहां की इकलौती पार्टी के गुर्गों ने मार डाला।

सोवियत रूस में स्तालिन ने भी सर्वहारा हित के नाम पर लगभग 30 लाख लोगों को साइबेरिया के गुलाग आर्किपेलागो में बने लेबर कैंपों में भेजकर अमानवीय स्थितियों में कठोर श्रम करवाकर मार डाला, ऊपर से लगभग साढ़े सात लाख लोगों, विशेकर यहूदियों की  बिना कोई मुकदमा चलाए हत्या कर दी गई। इनमें से अधिकांश के  परिजनों को 1990  तक पता भी नहीं चला कि वे कहाँ गायब हो गए।  पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी आदि ईस्टर्न ब्लॉक के यूरोपीय देश जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद रूस की रेड आर्मी के कब्जे में थे और जहाँ रूस ने अपने चमचे शासन में बिठा रखे थे, वहां भी कमोबेश यही स्थिति थी।

पूर्वी जर्मनी में तो स्टासी ने हर नागरिक की पूरी जिंदगी की ही जासूसी कर रखी थी। इन सब देशों में कुल मिलाकर इन ‘समाजवादी’ सरकारों ने भय और प्रोपागैंडा के बल पर नागरिकों के मुंह खोलने पर पूरी पाबंदी लगा रखी थी और पूरा iron curtain  बना रखा था- बिना पोलितब्यूरो की हरी झंडी के लोग देश के बाहर जाना-आना भी नहीं कर सकते थे। इन सब जगहों पर कहने को चुनाव होते थे, पर उनमें एक ही पार्टी खड़ी होती थी- कम्युनिस्ट पार्टी। अखबार,  पत्रिकाएँ,  टीवी, सिनेमा,  साहित्य,  विज्ञान,  कला और यहां तक कि संगीत में भी जो भी कुछ होता था, वो पोलितब्यूरो तय करती थी।

Eisenstein और Tarkovsky जैसे अद्भुत फिल्मकारों से लेकर  Solzhenitsyn और Pasternak जैसे लेखक हों या Mosolov, Shostakovich और Rostropovich जैसे महान संगीत कलाकार, सबको अधपढ़े और असभ्य कम्युनिस्टों ने भीषण यातनाएं दीं- कुछ  मारे गए, कुछ मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गए, कुछ ने डर से पोलितब्यूरो का एजेंडा अपना लिया और कुछ जो नसीब वाले थे, अमेरिका और पश्चिमी यूरोप भाग गए। वैज्ञानिक और खिलाड़ी भी इस दमनकारी व्यवस्था से बचे नहीं, कितने ही लोग अंतरिक्ष में और चांद पर जाने की सोवियत मुहिम में मारे गए जिनके अस्तित्व के सारे सुबूत केजीबी ने मिटा दिए।  हारनेवाले ऐथलीट भी कठोर सजा के हकदार बनते थे।

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साभार : welcomenri.com

इनके आदर्श ‘सर्वहारा सेवकों’ की सत्तालोलुपता और ऐय्याशी का वर्णन करते शब्द कम पड़ जाएंगे। जैसे ही कोई नेता कमजोर पड़ा कि गुटबंदी करके एक उसको मरवाकर खुद शासक बन जाता था। फिर उसके कल तक बाकियों से कैसे भी संबंध हो, निरंकुश शासन करने में जिस किसी के भी बाधक बन सकने का जरा सा शक भी होता था, उसपर ‘सर्वहारा का दुश्मन’ होने का आरोप लगाकर,  उसकी दिखावटी सुनवाई करके (अक्सर वो भी नहीं) उसे फायरिंग स्क्वाड के हवाले कर दिया जाता था। खुद स्तालिन ने 139  केंद्रीय समिति सदस्यों में 93 और 103 जनरलों में 81 को मरवा दिया था,  कई को तो सिर्फ शक के आधार पर।

बाद में पुरानी तस्वीरों और फिल्मों में से भी उन्हें मिटा दिया जाता था। ऊपर से स्तालिन हो या अपने ज्योति बसु या आज के सीताराम येचुरी जैसे वामी नमूने-  इनके अपने व्यक्तिगत जीवन में भव्य महल जैसे निवास, महंगी विदेशी गाड़ियाँ, क्यूबन सिगार, महंगी शराब और औरतों की बहुतायत मिलेगी, भले ही दावा ये मजदूरों की लड़ाई लड़ने का करते हों। जब ऐसी घृणास्पद विरासत के उत्तराधिकारी ये कम्युनिस्ट मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जनहित जैसे शब्द अपनी जबान पर बेशर्मी से लाते हैं, तो इनकी असलियत जाननेवालों को तो कोफ्त होगी ही। बहरहाल, परिवर्तन प्रकृति का नियम है। आज वामपंथ अपनी आख़िरी साँसें गिन रहा है। समय इसे छोड़कर आगे बढ़ चला है। अब तय आपको करना है कि आप बदलते दौर में विकास की राह पर आगे बढ़ना चाहते हैं या पतन की अंधी सुरंग की ओर जाना चाहते हैं।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)