विकास बनाम जातिवाद की लड़ाई का अखाड़ा बना गुजरात चुनाव

विकास के मुद्दे पर कांग्रेस भाजपा का मुकाबला कर पाने की स्थिति में नहीं है, इसीलिए अब जातिवादी राजनीति के सहारे गुजरात में जीत का स्वाद चखना चाहती है। गुजरात में जातिगत आधार पर समाज को बांटने का काम पहले भी कांग्रेस ने किया था, जब माधवसिंह सोलंकी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तभी ये मंसूबा कामयाब हुआ था। लेकिन, अब नर्मदा नदी से होकर बहुत पानी बह चुका है। गुजरात उस पुराने और एक तरह से समाजतोड़क फ़ॉर्मूले  को खरीदने के लिए शायद ही तैयार हो।

गुजरात में विधानसभा चुनाव इस बार साफ़ तौर पर विकास बनाम जातिवाद के मुद्दे पर केन्द्रित हो गया है। वैसे, आदर्श राजनीतिक व्यवस्था यही होगी कि चुनाव जातिवाद, धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठकर लड़ें जाएँ। जातिवाद को चुनावी मुद्दा बनाने के लिए हम अक्सर उत्तर प्रदेश और बिहार के नेताओं को बदनाम करते हैं, लेकिन गुजरात में कांग्रेस लगता है ये तय करके बैठी थी कि अबकी जातिवाद और आरक्षण के नाम पर ही चुनाव लड़ना है।

गुजरात के लोग बखूबी जातिगत राजनीति के फायदे और नुकसान के गणित को भी समझते हैं। अब प्रश्न यह है कि इस बार कांग्रेस ने जातिवादी और आरक्षण समर्थक नेताओं को क्यों आगे किया? आरक्षण और जातिवाद को चुनावी मुद्दा क्यों बनाया जा रहा? क्या गुजरात की जनता कांग्रेस की फांस में फंसने को तैयार है?

गुजरात के औद्योगिक शहर में जातिगत राजनीति की खूब चर्चा हो रही है। सूरत के रहने वाले हेमंत धोलाभाई कहते हैं कि शायद दक्षिण गुजरात के ट्राइबल इलाकों में जातिवाद एक मुद्दा बने जहाँ कांग्रेस ने ऐतिहासिक तौर पर ज्यादा जीत दर्ज की है। लेकिन, गुजरात की बीजेपी सरकार ने दक्षिण गुजरात के लिए काफी विकास योजनाएं चलाई हैं, इसलिए कांग्रेस को अपने चाल में कामयाबी नहीं मिलेगी।

हार्दिक पटेल

हेमंत धोलाभई कहते हैं कि गुजरात के लोग चकित हैं, जिस तरह से कांग्रेस द्वारा उन्हें जाति के आधार पर बांटा जा रहा है। अभी कुछ समय के लिए हार्दिक पटेल का खुमार था, लेकिन गुजरात को पता है, कहाँ किसे सिर पर चढ़ाना चाहिए और कब उतारना चाहिए। कहने का आशय यह है कि देखने में भले लगता है कि कांग्रेस ने हार्दिक पटेल और अन्य आरक्षण समर्थक नेताओं को उतारकर बाजी मार ली, लेकिन यह बात लगभग तय लगती है कि गुजरात में लोग “कास्ट-फेक्टर” को खारिज कर देंगे।

गुजरात में सियासी पार्टियां जाति का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन जाति के नाम पर चुनाव इतना केन्द्रित कैसे हुआ? इस बार टेलीविज़न और अखबारों में हर उम्मीदवार की जाति ही उसकी पहचान बताई जा रही, सारा विश्लेषण जाति के आधार पर करने की कोशिश की जाती है। ऐसा पहले नहीं होता था, लेकिन इस बार ऐसा ही है।

गुजरात बीजेपी के प्रवक्ता जयंतीभाई परमार कहते हैं कि पिछले दो-तीन सालों में जाति की भूमिका को जानबूझकर सामने लाया गया, जिसका श्रेय कांग्रेस को जाता है। दरअसल विकास के मुद्दे पर कांग्रेस भाजपा का मुकाबला कर पाने की स्थिति में नहीं है, इसीलिए अब जातिवादी राजनीति के सहारे गुजरात में जीत का स्वाद चखना चाहती है।

गुजरात में जातिगत आधार पर समाज को बांटने का काम पहले भी कांग्रेस ने किया था, जब माधवसिंह सोलंकी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तभी ये मंसूबा कामयाब हुआ था। लेकिन, अब नर्मदा नदी से होकर बहुत पानी बह चुका है। गुजरात उस पुराने और एक तरह से समाजतोड़क फ़ॉर्मूले  को खरीदने के लिए शायद ही तैयार हो।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)