मैं विद्यार्थी परिषद् बोल रहा हूँ…..!

कम्युनिस्ट अपने मूल चरित्र में जितने हिंसक हैं, उतने ही फरेब में माहिर भी हैं। वो रोज नए झूठ गढ़ते हैं। जबतक उनके एक झूठ से पर्दा उठे तबतक दूसरा झूठ ओढ़कर पैदा हो जाते हैं। दरअसल वे झूठ की लहलहाती फसल के रक्तबीज हैं। आजकल इनके निशाने पर देश के विश्वविद्यालय हैं। कुछ भी रचनात्मक कर पाने में असफल यह गिरोह अब ध्वंसात्मक नीतियों के चरम की ओर बढ़ चला है। ये मासूमों को घेरने वाला गिरोह है। इसके निशाने पर अमन शान्ति से चल रहा दिल्ली विश्वविद्यालय है, तो छात्रों का सबसे बड़ा संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् भी है। इस लेख में कोई नाम नहीं है, लेकिन एक अनाम आवाज है जो चीखचीख कर कह रही है कि सुनो, मैं विद्यार्थी परिषद् बोल रहा हूँ……

मित्रों! देश में हाल-फिलहाल जिस तरह चहुंओर राष्ट्रभक्ति और देशद्रोह पर बहस चल पड़ी है, कुछ बेबुनियाद बातों को लगाकर मुझे एक संगठन के तौर पर बदनाम किया जा रहा है, वह सब देखकर लगता है कि अब मुझे आप लोगों से सीधे संवाद करना चाहिए। मैं कौन हूं, मेरी अवधारणा क्या है और मेरा अस्तित्व क्यों है, इसे जाने-बूझे बिना अगर कुछ लोग मुझ पर छींटाकशी कर रहे हैं, तो उनको मैं अज्ञानी समझ कर माफ कर दूं, पर जिस तरह भोले-भाले अनजान लोगों को भड़काया जा रहा है, उसे देखते हुए मेरा सीधा संवाद अब अपरिहार्य सा हो गया है। इसके साथ ही, कुछ चर्चा छात्र राजनीति पर भी होनी चाहिए, जिसके चलते ‘राष्ट्र’ और उससे ‘द्रोह’ की पूरी अवधारणा ही प्रश्नांकित हो गयी है, खुद उस पर ही सवाल उठने लगे हैं।

सबसे पहले अपना परिचय। मैं विद्यार्थी परिषद् हूं, अखिल भारतीय। विश्व का सबसे बड़ा छात्र संगठन। अखिल भारतीय हूं- जाति, प्रांत, लिंग या किसी भी तरह के भेदभाव से परे। मेरी स्थापना छात्र हितों के रक्षण और संवर्द्धन हेतु 1949 ईस्वी में की गयी- यानी अब अधेड़ हो गया हू। 67 वर्ष का। मेरी स्थापना का मूल उद्देश्य राष्ट्रीय पुनर्निर्माण है। छात्रशक्ति ही राष्ट्रशक्ति होती है। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए छात्रों में राष्ट्रवादी चिंतन को जगाना ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का मूल उद्देश्य है। देश की युवा छात्र शक्ति का यह प्रतिनिधि संगठन है। इसकी मूल अवधारणा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण है। राष्ट्र मेरे लिए क्या है, इस पर आगे बात करूंगा, पहले मेरे स्वरूप को जान लीजिए।

आप ‘राष्ट्रवादी’ हो सकते हैं और यह कोई शर्म की बात नहीं है। आपको जेएनयू के उस भटके युवा की तरह यह कहने की ज़रूरत नहीं, जिसे लड़की छेड़ने के आरोप में सज़ा भी मिल चुकी है- ‘आप मुझसे पूछेंगे कि मैं राष्ट्रवादी हूं, मैं कहूंगा नहीं। आप मुझसे पूछेंगे कि मैं अंतरराष्ट्रीयतावादी हूं, मैं कहूंगा कि यह सवाल जायज नहीं है।’ आपके लिए रामायण के रचनाकार ने बहुत पहले कह दिया है, ‘नेयं स्वर्णमयी लंका, न मे रोचते लक्ष्मण। जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।’

देश के सभी विश्वविद्यालयों और अधिकांश कॉलेजों में परिषद् की इकाइयां हैं। हर वर्ष देशव्यापी सदस्यता होती है। अधिकांश छात्रसंघों पर परिषद् का ही अधिकार है। मेरा मानना है कि आज का छात्र कल का नागरिक है। जो राजनीति हमारे देश के हरेक नागरिक का जीवन तय करती है, उस राजनीति को दशा और दिशा देने का कार्य युवाओं से बेहतर कौन कर सकता है? हालिया घटनाओं के बहाने मुझ पर (छात्र राजनीति पर मूलतः) हमला करनेवाले जान लें कि सबसे अशिक्षित व्यक्ति राजनैतिक रूप से निष्क्रिय व्यक्ति ही होता है। युवावस्था किसी के भी जीवन का सबसे आदर्श और पवित्र अध्याय होता है, इसलिए युवाओं को तो खासकर राजनीति में जुड़ना चाहिए। राष्ट्रनिर्माण के इस यज्ञ में समिधा बनना चाहिए। मेरी गोद से निकले कई व्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रनिर्माण कर रहे हैं, फिलहाल एक का ही नाम लेना चाहूंगा, जो इस वक्त देश के वित्तमंत्री के तौर पर हमारे-आपके भविष्य का निर्धारण कर रहे हैं।

अभी कुछ हुड़दंगियों ने (और, अधिकतम संभावना है कि वे भटके हुए लोग कम्युनिस्ट ही होंगे) दिल्ली विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर के साथ मारपीट की। उसके बहाने मेरे लाडलों पर हमला करनेवाले यह जान लें कि मैं एकमात्र संगठन हूं, जो शैक्षणिक परिवार की अवधारणा में विश्वास रखता है और इसी कारण परिषद् के अध्यक्ष पद पर प्रोफेसर हीं चुने जाते हैं। जब हमारे मूल चिंतन में ही शैक्षणिक परिवार की अवधारणा इतने गहरे तक बैठी है, तो मेरे छात्र या छात्राएं किसी प्रोफेसर पर हमला कर ही कैसे सकते हैं?

अपनी स्थापना काल से हीं मैंने छात्र हित और राष्ट्र हित से जुड़े प्रश्नों को प्रमुखता से उठाया है और देशव्यापी आंदोलनों का नेतृत्व किया है। बांग्लादेशी अवैध घुसपैठ हो या कश्मीर से धारा ३७० हटाना, सर्वसुलभ शिक्षा हो या आपातकाल का सामना, मैं समय-समय पर छात्र और राष्ट्र हित के मुद्दों पर हमला करता रहा हूं। बिहार में मेरे नाम सबसे ज्यादा रक्तदान करने का रिकॉर्ड है। इसके अतिरिक्त निर्धन मेधावी छात्र, जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिय़े निजी कोचिंग संस्थानों में नहीं जा सकते उनके लिये स्वामी विवेकानंद नि:शुल्क शिक्षा शिविर का आयोजन किया जाता है। राष्ट्रीय स्तर पर संगठन की ओर से हरेक साल अंतर-प्रांतीय छात्रों के आदान-प्रदान का आयोजन किया जाता है, जिसके अंतर्गत दूसरे राज्य में रहने वाले छात्र अन्य राज्यों में प्रवास करते हैं और वहां की संस्कृति और रहन-सहन से परिचित होते हैं। यह है मेरी राष्ट्रीय एकात्मता की धारणा, राष्ट्रनिर्माण का चिंतन और छात्रहितों का संदेश।

अब ज़रा हालिया घटनाओं पर बात करें। ठीक एक साल पहले, एक और विश्वविद्यालय में भी राष्ट्र को लेकर ही बवाल हुआ था। कुछ शरारती तत्वों ने मेरे प्रिय राष्ट्र को भी टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगाए, उसको खंडित करने की मंशा जतायी। उसके बाद पूरी बहस को भी वे मोड़ ले गए- सहिष्णुता और सहनशीलता पर। इसलिए, पहले तो यह समझिए कि राष्ट्र क्या है?

क्या राष्ट्र उन 100-200, या कुछ हज़ार लोगों का वह समूह है, जो हमारे पूरे देश के लिए नीतियां बनाते और निर्णय करते हैं या फिर राष्ट्र उन करोड़ों हतभाग्यों का भी है, जो 2016 ईस्वी में भी रोज़ाना 30 रुपए से कम की आय पर गुज़ारा कर रहे हैं? राष्ट्र, जानकीवल्लभ शास्त्री के शब्दों में ‘कुपथ-कुपथ रथ दौड़ानेवाले’ कुछ नेताओं का समुच्चय मात्र है, या वह कतार में सबसे आखिर में खड़े मनुष्य का भी है? राष्ट्र मुकेश अंबानी या उतने ही बड़े किसी भी उद्योगपति मात्र का ही (या भी) है या वह कोकड़ाझार में पत्तों को खाकर जीवन गुज़ारने पर मजबूर किसी टोपनो या टुडू का भी है?

राष्ट्र शब्द को अगर बहुत मोटे शब्दों में समझाना चाहें, तो क्या कहेंगे? राष्ट्र लोगों का वैसा स्थायी समुच्चय या समूह है जिनके बीच सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक-धार्मिक संबंध न केवल होते हैं, बल्कि वे उनको एकजुट भी करते हैं। यहीं एक भ्रम यह भी होता है कि बारहां देश को राष्ट्र का पर्यायवाची मान लिया जाता है। हालांकि, यह भ्रामक है। देश शब्द के मूल में ‘दिश’ धातु है, उसी से देशांतर और देश बने हैं। यह भौगोलिक सीमाओं से आबद्ध है। यानी, कहें तो देश संकुचित है, राष्ट्र व्यापक। राष्ट्र (‘राजृ-दीप्तो’ अर्थात ‘राजृ’ धातु से कर्म में ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय) विभिन्न साधनों से संयुक्त और समृद्ध सांस्कृतिक पहचान वाला ‘देश’ है। यह एक जीवंत और सार्वभौमिक इकाई है, विविधताओं को पचाने वाली अद्भुत शक्ति से लैस भूखंड या कहें जीवन-दर्शन का द्योतक है। देश सीधे तौर पर रेखाओं में बांधता है। इसीलिए, जब मैं ‘भारत’ को एक राष्ट्र के तौर पर संबोधित करता हूं, तो उसकी व्यंजना बिल्कुल अलग होती है और जब हम भारत को ‘देश’ के तौर पर अंगीकार करते हैं, तो उसकी व्यंजना बिल्कुल अलहदा होती है।

राष्ट्र के तौर पर हमारी भावना एक हो, हम एक राष्ट्रवादी विचारधारा से पनपें, इसके लिए महज दो-तीन शर्तें हैं। हमें एक ऐतिहासिक समुदाय के रूप में राष्ट्रीय चेतना को जगाना होता है, राजनीतिक औऱ आर्थिक संप्रभुता पानी होती है, अपनी साझा संस्कृति का विकास करना होता है और नकार की जगह सकार को अपनाना, सकारात्मक भावनाओं का विकास करना होता है। जिस तरह बिना अदहन के भात नहीं बन सकता, उसी तरह राष्ट्रवादी विचारधारा के सम्यक विकास के बिना अंतरराष्ट्रीयतावाद भी नहीं आ सकता है।

कुछ विद्वान हास्य के लहजे में सवाल उठाते हैं कि जब ‘नेशन-स्टेट’ की अवधारणा ही महज दो-ढाई सदी पुरानी है, तो आपका यह गौरवशाली भारतवर्ष एक ‘राष्ट्र’ के तौर पर कहां और कैसे आ गया? ऐसे विद्वानों को इस श्लोक का भी संदर्भ सहित अर्थ बता देना चाहिए, जो विष्णु-पुराण में आया हैः-

‘उत्तरं यत्समुद्र्स्य, हिमाद्रैश्चैव दक्षिणम्, वर्षं तद् भारतम् नाम, भारती तत्र संततिः’।।

यदि राष्ट्र की अवधारणा ही नहीं थी, तो भारतवर्ष की एक राष्ट्र के तौर पर इतनी विशद व्याख्या का भी कोई कारण नज़र नहीं आता है। ऋग्वेद में भी राष्ट्र शब्द का उल्लेख 8 बार हुआ है और यह बात प्रगतिशील विद्वान आर एस शर्मा भी अपनी किताब (प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएं) में स्वीकारते हैं। यह लेखक यहां केवल एक श्लोक उद्धृत करना चाहता हैः-

“त्वं नो असि भारताsग्ने वशाभिरुक्षाभिः। अष्टापदीभिराहुतः।“ (ऋग्वेद 2.7.5) यानी भारत में सभी विषयों में अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान गायों और बैलों के द्वारा खेती कर समृद्ध और सुखी हैं। वे आठ सत्य-असत्य के निर्धारित करनेवाले नियमों के सहारे अपना जीवन जीते हैं। इसी ऋग्वेद में राष्ट्र का अर्थ संगमन का भी है- ‘अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम’। मोटे तौर पर राष्ट्री का अर्थ एक ऐसी इकाई हुआ, जो आपस में मिली-जुली हो और खुद ही में एक जगह भी है। यजुवर्वेद और अथर्ववेद में भी ‘राष्ट्र’ का उल्लेख हुआ है। यहां चूंकि ‘देश’ का प्रयोग नहीं हुआ है, इसलिए यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि वैदिक ग्रंथों में राष्ट्र की ही प्रमुखता मिली है। देश को स्थानवाची मानते हुए उसके साथ राष्ट्र का विभेद किया गया है, क्योंकि वैदिक ऋषि राष्ट्र का दायित्व सभी राष्ट्रीय ‘जन’ का कर्तव्य मानता है- ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहितः’।

महाभारत रचयिता के शब्द हैं, “न वै राज्यं न राजाsसीत्, न दंडो न च दांडिकः। धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षंति स्म परस्परम्।” यानी, न पहले कोई राज्य था, न ही राजा था। फिर, चूंकि बड़ी मछली ही छोटी को खा रही थी, इसलिए राजा आया, फिर राज्य आए, उसके साथ नियम (आज के कानून) आए और फिर उन नियमों को भंग करनेवालों के लिए दंड की व्यवस्था आयी। इसीलिए, राज्य बना, और यह महीन भेद (राष्ट्र और राज्य के बीच का) हमें समझना चाहिए।

आज राजनीतिशास्त्र हमें इसी ‘राज्य’ या  ‘नेशन-स्टेट’ के बारे में बताता है। यह वैसी राजनीतिक धारणा है, जो दंड के बल पर भूगोल को साधती है औऱ इतिहास को चमकाती है। एर्न्स्ट बार्कर नामक राजनीतिक-शास्त्री क्या कहते हैं, ज़रा देखिएः “The state is a legal association: It exists for law: it exists in and through law: we may even say that it exists as law. The essence of the State is a living body of effective rules: and in that sense the State is law.” (Ernest Barker – Principles of Social and Political Theory – Page 89) अगर थोड़ी देर के लिए हमलोग विषयांतर कर लें, तो हालिया जो हल्ला-गुल्ला मचा है, दिल्ली के एक विश्वविद्यालय को लेकर, उसकी इस परिभाषा से अधिक सटीक कोई व्याख्या नहीं हो सकती है।

‘राष्ट्र’ परिभाषाओं से कहीं आगे, कहीं दूर की चीज़ है। यह जाहिर तौर पर केवल भूखंड मात्र नहीं, वह जीवंत लोगों का समुच्चय है, राष्ट्र केवल दंड-भय से या ज़बर्दस्ती किसी के ऊपर आरोपित नहीं किया जा सकता, लेकिन राष्ट्र को भारतीय संदर्भों में अगर आप ‘नेशन-स्टेट’ के चश्मे से देखेंगे, तो भारी गफलत में पड़ेंगे। यह वैसी ही गफलत होगी, जो कालिदास को पूरब का शेक्सपियर कहती है और समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन। यह और कुछ नहीं, हमारे कॉलोनियल हैंगओवर का परिणाम मात्र होगा।

भारत में संदर्भों को उसी के अनुरूप लेना होगा, तभी शायद समुचित व्याख्या हो सकेगी। मैं यही मानता और जानता हूं। बात न जेएनयू की है, न डीयू की। बात है इस राष्ट्र की। पिछले तीन वर्षों से खासकर जो बेचैनी राष्ट्रद्रोही वामपंथियों के बीच है, वह मुझसे जुड़े लोगों को बदनाम करने की ज़िद में बदल गयी है।

आज आप लोगों से सीधा यह कहना चाहता हूं कि राष्ट्रभक्ति ही वह लौ है, जो मुझसे जुड़े हरेक व्यक्ति को इन झूठों का सामना करने की ताकत देती है। मैं, केरल से लेकर बंगाल तक खुद से जुड़े विद्यार्थियों पर अगणित हमले झेल चुका हूं, कई को खो भी चुका हूं, वामपंथी हिंसा की वजह से। मैं डरता नहीं, इसलिए आपको यह भी बता दूं कि मैं इनकी हिंसा से डर कर थमने या रुकनेवाला नहीं हूं। राष्ट्रवाद की यह मशाल न झुकी है, न झुकेगी।

बहरहाल, अंतिम बात यही कि आप ‘राष्ट्रवादी’ हो सकते हैं औऱ यह कोई शर्म की बात नहीं है। आपको जेएनयू के उस भटके युवा की तरह यह कहने की ज़रूरत नहीं, जिसे लड़की छेड़ने के आरोप में सज़ा भी मिल चुकी है- ‘आप मुझसे पूछेंगे कि मैं राष्ट्रवादी हूं, मैं कहूंगा नहीं। आप मुझसे पूछेंगे कि मैं अंतरराष्ट्रीयतावादी हूं, मैं कहूंगा कि यह सवाल जायज नहीं है।’ आपके लिए रामायण के रचनाकार ने बहुत पहले कह दिया है,

‘नेयं स्वर्णमयी लंका, न मे रोचते लक्ष्मण। जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।’