जेएनयू को बर्बादियों की तरफ ले जा रहा वामपंथी गिरोह

जेएनयू फिर से एक बार सुर्खियों में है। फिर से, ग़लत कारणों से। ये ग़लत वजहें किसी भी ‘जेनुआइट’ को परेशान कर सकती हैं। आपसी झगड़े के बाद से एक छात्र नजीब जेएनयू से गायब है। जहां तक मेरी स्मृति है, यह शायद जेएनयू में अपनी तरह की पहली घटना है। हां, इसके पहले फरवरी में भी कुख्यात ‘नारेबाज़ी’ कांड के बाद कुछ छात्र ‘भूमिगत’ हुए थे, लेकिन कोई लापता हो जाए, ऐसा पहली बार हुआ है। इस बीच यमुना पुल के नीचे से दिल्ली का काफी सीवर बह चुका है। जेएनयू गर्म है। वामपंथी छात्र संगठनों ने परसों पूरी रात प्रशासनिक भवन पर तालाबंदी की और आखिर में पुलिस को बुलाना पड़ा, जिसके बाद कुलपति अकादमिक परिषद की बैठक में जा सके। एक बार फिर से माहौल गर्म है और जहां मसला एक छात्र की गुमशुदगी का होना चाहिए था, वहीं इसे फिर से सांप्रदायिक और राजनीतिक रंग दिया जा रहा है। आगे बढ़ने से पहले ज़रा एक बार तथ्यों को समझ लेना उचित होगा।

हुआ यूँ कि लगभग हफ्ते भर पहले जेएनयू के माही-मांडवी हॉस्टल में हॉस्टल के चुनाव होनेवाले थे। इसी प्रचार के दौरान नजीब की एक लड़के के साथ झड़प हुई, मारपीट हुई और फिर मामला वार्डन और प्रशासन के अन्य लोगों तक पहुंचा। सुलह-सफाई हुई, जिसमें जेएनयूएसयू अध्यक्ष और वार्डन भी शामिल थे। उनके हस्ताक्षर वाला पर्चा भी इस लेखक के पास है। उसके बाद से नज़ीब गायब हो जाता है। एकाध दिन बाद उसके अभिभावक एफआइआर करते हैं औऱ पुलिसिया छानबीन शुरू होती है। इसके भी एकाध दिन बाद अचानक से वामपंथी नेतृत्व जागता है और प्रशासनिक भवन को घेर लेता है। कर्मचारियों के साथ धक्का-मुक्की और बदसलूकी के अलावा वीसी और रेक्टर जैसे अधिकारियों को रात भर के लिए बंधक भी बना लिया। इसके वीडियो इस लेखक के पास हैं।

देश में जेएनयू की जो भी प्रतिष्ठा है, वह बीती कुछ घटनाओं की वजह से बहुत तेज़ी से छीजी है। आखिर देश, नोएडा में मौजूद चंद एंटरटेनमेंट चैनलों के दफ्तरों में नहीं है। इस देश का मध्यवर्ग ‘रेडिकल अप्रोच’ को पसंद नहीं करता, खासकर देश के मसलों में। जहां तक सहिष्णुता का सवाल है, तो अगर सरकार सचमुच असहिष्णु हो गयी, तो इन जमूरों को बचाने इनके बौद्धिक  मालिकान तो नहीं ही आएंगे। इनके साथ जो सबसे बड़ी चीज थी, जेएनयू की प्रतिष्ठा और उस वजह से जनता का बेपनाह समर्थन…वह दोनों ही पिछले कुछ दिनों में बहुत तेज़ी से छीजते चले जा रहे हैं।

यह तो थे तथ्य, अब हम ज़रा इनकी व्याख्या पर भी बात करें। फरवरी-मार्च के समय जिस तरह जेएनयू कुख्यात हुआ था, उसी तरह एक बार फिर इसके पाले कुख्याति आयी है। ‘They are at it again.’ वे फिर से अपने कथित विरोध में संलिप्त हैं। वामपंथी छात्रसंघ ने एक बार फिर जनेवि को बंधक बना लिया है। किसलिए ? अपने कुकर्मों को छुपाने के लिए। यह सवाल भी मन में आता है कि एक बार फिर से कहीं वे हैदराबाद के रोहित वेमुला की तरह एक और छात्र की हत्या/आत्महत्या का वितंडा खड़ा करने पर आमादा हैं, जिसे उन्होंने बाद में दलित साबित कर पूरे देश भर में असहिष्णुता का माहौल खड़ा कर दिया था। रोहित दलित माता की संतान था, नज़ीब मुसलमान है और इन पर झपटने को आतुर राजनीति अपना विद्रूप प्रकट कर रही है।  

देशविरोधी नारे लगवा कर, भारत के टुकड़े करने का ख्वाब देखनेवालों को इन वामपंथी बौद्धिक लफ्फाजों  ने पहले ही अपना पोस्टर-ब्वॉय बना लिया है और एक कैंपस की बात को राष्ट्रीय विमर्श बनाने में उन नेताओं की भी कम भूमिका नहीं, जिन्हें जेएनयू की चौहद्दी भले न पता हो, लेकिन अपने एसी चेंबर से ही वे वहां का कोना-कोना छान देते हैं।

इस बार वामपंथियों का शिकार नया है। ज़ाहिर तौर पर मसला ही ऐसा है कि कोई भी खुले तौर पर इनका विरोध करेगा नहीं, क्योंकि कल को मान लीजिए किसी कर्मचारी का, किसी टीचर के बेटे-बेटी के साथ ऐसा हुआ तो ? हालांकि, वामपंथियों को पता नहीं कि काठ की हांड़ी बार-बार चढ़ती नहीं। मसला एक छात्र की गुमशुदगी का था, लेकिन इसे भी उन्होंने सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की है, कर्मचारियों को बंधक बनाया और इन सबसे इनके खिलाफ अधिक से अधिक लोग हो गए हैं। खुद आइसा और बाफ्सा (बिरसा-अंबेडकर-फुले स्टूडेंट असोसिएशन) के बीच ही प्रशासनिक बंदी को लेकर दो-फाड़ मतभेद है। बात यह है कि परिषद को हराने के लिए भले ही इन्होंने महागठबंधन कर लिया हो, पर आइसा को सबसे अधिक चुनौती तो खुद दलितों का ‘आधिकारिक’ संगठन ही दे रहा है।

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बहरहाल, जैसा कि वामपंथी रवायत है, अपनी कमियों से ध्यान हटाने के लिए ये प्रशासन पर चढ़ दौड़े। शिक्षकों को भी इन्होंने नहीं बख्शा। सुबह 3 बजे तक इन्होंने वीसी, रेक्टर आदि को बंधक बनाए रखा। शिक्षकों को बंधक बनाना कौन सी छात्र-राजनीति है (कई आचार्य फेसबुक पर संदेश डाल चुके हैं)। वामपंथी नेतृत्व से कुछ सवाल तो पूछने ही चाहिएः-

1. जब लड़के के मां-बाप ने एफआइआर दर्ज करा दी है, पुलिस मामले में संलग्न है, तो अब प्रशासन इसमें क्या करेगा ? 
2. आपसी मारपीट के बाद जब सुलह हुई, तो नजीब गायब क्यों हुआ, प्रशासन भी तो आखिरकार पुलिस के पास ही जाएगा ?
3. कांस्पिरैसी थियरी के हिसाब से सोचें तो कहीं वामपंथियों को प्रशासन से पहले अभयदान तो नहीं चाहिए, फिर खालिद और कन्हैया की तरह ही नजीब भी प्रकट हो जाएंगे।
4. फिर से जेएनयू को सुलगा कर ये हज़ारों विद्यार्थियों की बाहर छवि जो खराब कर रहे हैं, उससे इनको तो कोई मतलब भले नहीं हो, लेकिन बाक़ी का क्या ?

वामपंथी गिरोह फिर से उसी काम में लग गया है, जिसमें ये सबसे अधिक निष्णात है। झूठ बोलना, तिल का ताड़ बनाना और भोले लोगों को भड़काकर उनसे गलत फैसले करवाना। लेखक को जेएनयू के माही-मांडवी हॉस्टल के उस छात्र नज़ीब के माता-पिता से पूरी सहानुभूति है। नज़र रखनी होगी कि कहीं ये वामपंथी उस लड़के की हत्या न करवा दें, आखिर राजनीति कुछ भी करवा सकती है।

खैर, जेएनयू को फिर से आग में झोंकने की तैयारी हो रही है। मुद्दे गायब हैं, छात्रहितों की बात नहीं हो रही है, एक छात्र गुमशुदा है, उसकी बात कोई नहीं सोच रहा है,लेकिन राजनीति की रोटियां खूब सेकी जा रही हैं। किस्सा-कोताह यह कि इस मुल्क का एक सेक्युलर, प्रगतिशील 26 वर्षीय बालक गायब हो गया है, जनेवि के भरे-पूरे परिसर से। पिछले चार-पांच दिनों से उसे ज़मीन खा गयी, या आसमान निगल गया, पता नहीं। माता-पिता ने एफआइआर करा दी है। वामपंथी संगठन और नेता पूरी तरह कैंपस को किसी तरह सुलगाने के मूड में हैं और सोशल मीडिया पर झूठ और नफरत फैला रहे हैं। हालांकि, इन्हें यह पता नहीं कि जिस डाल पर ये बैठे हैं, उसी को काटने में लगे हैं। अभी तक तो ये भेड़िया आया, भेड़िया आया की कहावत चरितार्थ कर रहे हैं, लेकिन जब सचमुच का भेड़िया आएगा, तो इन्हें कोई बचानेवाला नहीं होगा।

देश में जेएनयू की जो भी प्रतिष्ठा है, वह बीती कुछ घटनाओं की वजह से बहुत तेज़ी से छीजी है। आखिर देश, नोएडा में मौजूद चंद एंटरटेनमेंट चैनलों के दफ्तरों में नहीं है। इस देश का मध्यवर्ग ‘रेडिकल अप्रोच’ को पसंद नहीं करता, खासकर देश के मसलों में। जहां तक सहिष्णुता का सवाल है, तो अगर सरकार सचमुच असहिष्णु हो गयी, तो इन जमूरों को बचाने इनके बौद्धिक  मालिकान तो नहीं ही आएंगे। इनके साथ जो सबसे बड़ी चीज थी, जेएनयू की प्रतिष्ठा और उस वजह से जनता का बेपनाह समर्थन…वह दोनों ही पिछले कुछ दिनों में बहुत तेज़ी से छीजते चले जा रहे हैं।  फिलहाल, तो इस प्रकरण में यह शेर याद आ रहा –

वतन की फिक्र कर नादां, मुसीबत आनेवाली है।

तेरी बर्बादियों के मशवरे हैं, आसमानों में…….।।

(लेखक जेएनयू के पूर्व छात्र और स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)