देश को तोड़ने वाली राजनीति का उदाहरण है कर्नाटक सरकार का अलग झंडे का राग

राज्य के अलग झण्डे के विवाद पर कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया बचाव की मुद्रा में हैं। कह रहे हैं कि राज्य का अलग झंडा उसकी पहचान का सांकेतिक प्रतीक होगा। क्या अभी तक कर्नाटक का तिरंगे से काम नहीं चल रहा था ? इस तरह की कवायदें देश की एकता और अखंडता को नुकसान पहुँचाने वाली हैं। क्या किसी राष्ट्रीय दल को शोभा देता है कि वो ऐसे स्थिति को खराब करे ? पर कांग्रेस को इन सबसे क्या सरोकार! शायद उसे अबतक समझ ही नहीं आया है कि उसे जनता क्यों गर्त में मिलाती जा रही है।

कर्नाटक को मानो किसी की नजर लग गई है। कथित तौर पर हिन्दी थोपे जाने को लेकर वहां के कुछ शरारती तत्व सड़कों पर उतर आते हैं। कावेरी जल के बंटवारे के प्रश्न पर उधर तमिलों को पीटा जाता है। अब कर्नाटक फिर से नकारात्मक कारणों से सुर्खियों में हैं। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार राज्य के लिए अलग झंडे और सिंबल के लिए एक्शन में आ गई है।

सरकार ने 9 सदस्यों की एक कमेटी बनाई है, जिसे झंडा डिज़ाइन का करने और सिंबल तय करने का ज़िम्मा सौंपा गया। ये कमेटी अपनी रिपोर्ट सौंपेगी, जिसके बाद इसे कानूनी मान्यता दिलाने का काम होगा। अगर यह फ़ैसला लागू हो जाता है, तो जम्मू-कश्मीर के बाद देश का दूसरा राज्य होगा, जिसका अपना झंडा होगा। हालांकि सारा देश कर्नाटक सरकार के कदम से सन्न है। देश इस कदम को खारिज कर रहा है।

देश में यह राय है कि भारत एक राष्ट्र है, इसके दो झंडे नहीं हो सकते। वैसे भी फ्लैग कोड किसी भी राज्य को अलग झंडे की इजाजत नहीं देता। तिरंगा देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता का प्रतीक है। निर्विवाद रूप से कर्नाटक सरकार का फैसला बेहद गंभीर मसला है। तिरंगा सारे देश को भावनात्मक रूप से बांधता है। आप किसी भी प्रांत से हों, कोई भाषी-भाषी हों या किसी भी धर्म से संबंध रखते हों, आपकी पहचान तिरंगे से होती है। तिरंगा हर भारतीय को इस महान देश का नागरिक होने का बोध करवाता है।

इस पर अब कोई अलग से बहस के लिए स्थान नहीं है। भारत को आप उसी महकते हुए बगीचे के रूप में देखते हैं, जिसमें भांति-भांति के फूल हैं। यानी भारत एक बगीचा है, राज्य उसके फूल हैं। इन गुलों की अपनी पहचान है, महक है और स्वरूप है। पर ये महकते तब ही हैं, जब ये बगीचे का अंग होते हैं। 

दरअसल राज्य विधानसभा के चुनाव निकट भविष्य में होने वाले हैं। कर्नाटक में कांग्रेस सरकार का प्रदर्शन हर दृष्टि से लचर रहा है। इसलिए राज्य की कांग्रेस सरकार भावनात्मक प्रश्नों को उठाकर चुनावी मैदान में ताल ठोंकने का इरादा रख रही है। यह अलग झंडे की योजना इसी किस्म की राजनीति है। सबसे अधिक चिंता का विषय ये है कि दिल्ली में बैठे कांग्रेसी नेता सारे घटनाक्रम से बेपरवाह नज़र आ रहे हैं। वे अपनी सरकार के इतने निंदनीय कदम की भर्त्सना करना भी जरूरी नहीं समझ रहे। क्यों कांग्रेस नेतृत्व अपने कर्नाटक के नेताओं को नहीं लताड़ता? इस मौन से तो यही ज़ाहिर होता है कि कर्नाटक की कांग्रेस सरकार से कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व भी सहमत है।

जम्मू-कश्मीर को राज्य के संविधान की धारा 370 के तहत अलग झंडा रखने का अधिकार प्राप्त है। जम्मू-कश्मीर को धारा 370 में विशेष अधिकार देने से देश को कितनी क्षति हुई है, उसे यहां पर बताने की जरूरत नहीं है। अलग झंडा और संविधान देने के चलते ही वहां पर भारत से बाहर जाने की मानसिकता पैदा हुई।  ये तो देश के जनमानस का संकल्प है कि जम्मू-कश्मीर  भारत का अटूट अंग बना हुआ है, पर वस्तु स्थिति ये है कि राज्य की जनता भारत से अपने को जोड़ कर नहीं देखती। उसका संघीय व्यवस्था में कतई विश्वास नहीं है। वो भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान को ठेंगा दिखाती है। वो तो कम से कम कश्मीर घाटी में इस्लामिक शासन व्यवस्था लागू करना चाहती है।

अब जब चौतरफा वार होने लगे तो कर्नाटक के मुख्यमंत्री के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया बचाव की मुद्रा में हैं। कह रहे हैं कि राज्य का अलग झंडा उसकी पहचान का सांकेतिक प्रतीक होगा। क्या अभी तक कर्नाटक का तिरंगे से काम नहीं चल रहा था ? इस तरह की कवायदें देश की एकता और अखंडता को नुकसान पहुँचाने वाली हैं। क्या किसी राष्ट्रीय दल को शोभा देता है कि वो ऐसे स्थिति को खराब करे ? पर कांग्रेस को इन सबसे क्या सरोकार! शायद उसे अबतक समझ ही नहीं आया है कि उसे जनता क्यों गर्त में मिलाती जा रही है। उसकी तरफ से कोई मंथन नहीं हो रहा। वो देश की आईटी राजधानी को बर्बाद करने पर तुली है।

कर्नाटक की राजधानी बैंगलुरू देश की आईटी राजधानी के रूप में स्थापित हो चुकी है। वहां पर लाखों आईटी पेशेवर काम कर रहे हैं। हजारों विदेशी भी हैं। कर्नाटक से देश को प्रत्येक वर्ष खरबों डॉलर मिलते हैं विदेशी मुद्रा की शक्ल में। लेकिन लगता है कि जब तक कर्नाटक को वहां की कांग्रेस सरकार अव्यवस्था के हवाले नहीं कर देगी उसे चैन नहीं मिलेगा।

संघीय ढांचे में रहकर राज्यों को अधिक स्वायत्तता प्राप्त हो इस सवाल पर कोई मतभेद नहीं हो सकते। यूं भी अब तमाम राज्य अपने यहां विदेशी निवेश खींचने के लिए प्रयास करते हैं। पहले यह नहीं होता था। पर बदले दौर में हो रहा है। राज्यों के मुख्यमंत्री लंदन, सिंगापुर और न्यूयार्क के दौरों पर जाते हैं ताकि उनके यहां बड़ी कंपनियां निवेश करें। पर ये सब प्रयास और प्रयत्न होते हैं एक भारतीय के रूप में ही। ये मुख्यमंत्री अपना अलग झंडा लेकर नहीं जाते विदेशों में। पर कर्नाटक सरकार तो उल्टी गंगा बहाना चाहती है। जाहिर है,देश कर्नाटक सरकार के फैसले को नहीं मानेगा। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार का ये फैसला कांग्रेस की बदहाल राजनीति को और बदहाल कर देगा, इसकी पूरी संभावना है।

(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)