कठेरिया के बयान पर व्यर्थ का विवाद

डा.दिलीप अग्निहोत्री

अर्द्ध सत्य भ्रमित करता है। इसलिए किसी बयान को पूरे संदर्भ में देखने के बाद ही अंतिम निष्कर्ष निकालना चाहिए, अन्यथा व्यर्थ विवाद ram-shankar-katheria_647_030116122441उत्पन्न होते हैं, लेकिन राजनीति में अक्सर अपनी सुविधा के अनुसार आधे-अधूरे बयानों को तूल दिया जाता है। संदर्भ से अलग हटकर किसी एक पंक्ति को बड़े मुद्दे के रूप में उठाया जाता है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री रामशंकर कठेरिया का बयान इसी राजनीति का शिकार बना। वह लखनऊ विश्वविद्यालय में आयोजित समारोह के मुख्य वक्ता थे। उनके भाषण की जो सुर्खियां बनाई गईं, उन्हें विरोधियों ने लपक लिया। विवाद उत्पन्न हो गया। न्यूज चैनलों में बहस हुई। आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हुआ। धर्मनिरपेक्षता के दावेदारों ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया। कहा कि केंद्र सरकार भगवाकरण के रास्ते पर चल रही है। रामशंकर कठेरिया की यह पंक्ति सुर्खी बन चुकी थी कि भगवाकरण देश और शिक्षा दोनों का होगा। यह ठीक है कि इस पंक्ति का उल्लेख सियासी घमासान उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त था, पर पूरे बयान को एक साथ देखने में कुछ भी गलत नहीं लगेगा, लेकिन गैर भाजपा दलों ने जानबूझकर भाषण के शेष अंश को नजरंदाज किया। वह कुछ शब्दों को ही महत्व दे रहे हैं। पहले रामशंकर कठेरिया के भाषण की पृष्ठभूमि और संदर्भ पर गौर कीजिए। लखनऊ विश्वविद्यालय में शिवाजी के साम्राज्योत्सव पर आयोजित हिंदवी स्वराज समारोह में बोल रहे थे। जब समारोह शिवाजी और उनके साम्राज्य विषय पर आयोजित था, तब उनके विषय में ही मुख्य रूप से चर्चा होनी थी। शिवाजी हमारे इतिहास के महान नायक हैं। यह अच्छी बात है कि उनके प्रति सम्मान दलगत राजनीति से ऊपर का विषय है। प्रत्येक राजनीतिक दल और भारतीय समाज उनका सम्मान करता है। ऐसे में शिवाजी की प्रशंसा और उनसे प्रेरणा लेने वालों को सांप्रदायिक नहीं माना जा सकता। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रामशंकर कठेरिया व उत्तरप्रदेश के राज्यपाल राम नाइक ने जिस प्रकार शिवाजी की प्रासंगिकता, महानता का उल्लेख किया, उसमें कहीं भी सांप्रदायिकता नहीं थी। अब कठेरिया के शिक्षा और देश के भगवाकरण वाले बयान पर गौर कीजिए, लेकिन इसके लिए पूरे बयान को देखना होगा। डॉ. कठेरिया का कहना था कि देश की सांस्कृतिक विरासत के लिए महापुरुषों के सम्मान में यदि कोई कार्य होता है, इसमें भगवाकरण देखने की आदत सी पड़ गई है। ऐसे लोगों को वह साफ-साफ बताना चाहते हैं, यह काम भगवाकरण नहीं है, यह देश की सांस्कृतिक आत्मा है। यदि राष्ट्रीय स्वाभिमान बढ़ाने वाले पाठ्यक्रम को भगवाकरण कहा जाएगा, तो शिक्षा और देश दोनों का भगवाकरण होगा। वस्तुत: रामशंकर कठेरिया के बयान पर दलगत सीमा से ऊपर उठकर विचार होना चाहिए। राष्ट्रीय स्वाभिमान बढ़ाने वाले पाठ्यक्रम पर राष्ट्रीय सहमति बननी चाहिए। यह किसी एक पार्टी का मुद्दा नहीं हो सकता। कठेरिया ने कहा भी कि शिवाजी, महाराणा प्रताप, विवेकानंद, महात्मा गांधी, अंबेडकर जैसे महापुरुषों को क्या नई पीढ़ी के लिए आदर्श नहीं बनाना चाहिए। कठेरिया ने इस विषय पर व्यापक दृष्टिकोण को अपनाया। उन्होंने कहा कि भारत के सभी महापुरुषों को ध्यान में रखकर ऐसे काम किए जाएं जिससे भारत पुराना वैभव प्राप्त कर फिर दुनिया का मार्गदर्शन करे। यह ध्यान रखना चाहिए कि जब भारत के सभी महापुरुषों की बात होती है, तब उसमें भारतीय इतिहास के मुस्लिम महापुरुष भी शामिल होते हैं। इसे भगवाकरण का नाम देना सिर्फ राजनीतिक पैंतरा हो सकता है। कठेरिया ने यही अपने भाषण में साफ तौर पर कहा कि भारतीय संस्कृति हिंदू और मुसलमान में भेद नहीं करती। स्वयं शिवाजी ने ऐसे ही भेदभाव मुक्त पंथ निरपेक्ष शासन की स्थापना की थी। जाहिर है कि कठेरिया के पूरे बयान को देखने से साबित होता है कि उसमें विवाद उत्पन्न करने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी, लेकिन संदर्भ से काटकर एक लाइन उठाने से यह स्थिति आईं। यहां तक कि इस समारोह में वक्ताओं ने शिवाजी का उल्लेख भी पंथनिरपेक्ष शासक के रूप में किया। समारोह की अध्यक्षता करते हुए राज्यपाल राम नाइक ने शिवाजी के शासन को आज भी प्रासंगिक बताया। इस संदर्भ में यह भी समझना होगा कि भगवाकरण का मतलब हिंदुत्व नहीं है। यह सही है कि शिवाजी का सीधा मुकाबला मुगल बादशाह औरंगजेब से था। जहां औरंगजेब ने हिंदुओं पर जजियाकर लगाया था, अनेक मंदिरों का विध्वंस किया था, उसकी सेना हिंदुओं के साथ अमानवीय व्यवहार करती थी। वहीं शिवाजी की सेना को कठोर आदेश थे कि किसी भी मस्जिद को क्षति न पहुंचाई जाए, मुस्लिम महिलाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाए। इन दो शासन व्यवस्थाओं के विश्लेषण से स्पष्ट है कि शिवाजी पंथनिरपेक्षता व सर्वधर्म समभाव के मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं। ऐसे में शिवाजी से प्रेरणा लेने की बात को सांप्रदायिक माना ही नहीं जा सकता। शिवाजी के अष्टप्रधानों में उनके परिवार का कोई सदस्य शामिल नहीं था। क्या यह आदर्श आज भी प्रांसगिक नहीं है। शिवाजी ने अपराध पर अपने पुत्र को भी जेल में डाल दिया था। क्या आज के शासकों को इससे प्रेरणा नहीं लेनी चाहिए।

यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि पाठ्यक्रम से चंगेज खां, मोहम्मद गोरी या अंग्रेजों आदि विदेशी आक्रांताओं को हटाने की बात नहीं है, वरन् भारतीय महापुरुषों को आदर्श रूप में स्थापित करने की आवश्यकता है। इस पर सर्वदलीय सहमति होनी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार  एवं  राजनीतिक  विश्लेषक हैं )