वाम-विलासियों के ‘अंतहीन’ विमर्श का अंत जरुरी

पंकज कुमार झा
हमारे सभ्य समाज में सबसे महत्वपूर्ण अगर कुछ है तो वह ‘विमर्श’ है। बहस-मुबाहिसा, शास्त्रार्थ, वाद-विवाद, मतैक्य-मतभिन्नता, सहमति-असहमति, पक्ष-विपक्ष, पंचायत आदि के बिना किसी नतीजे पर पहुचना केवल तानाशाही में ही संभव है। लोकतंत्र और सभ्य समाज में तो मानवता के लिए यह प्रक्रिया एक वरदान ही है। अभिव्यक्ति की आज़ादी का सबसे सुन्दर रूप है हर पक्ष को सुनना, उन्हें अपनी बात रखने देना, विरोधी विचारों को समादर की दृष्टि से देखना।

देश की आम जनता ने कश्मीर से लेकर बस्तर तक ऐसा खूब सारा विमर्श झेला है। किसी में भी विमर्श पर ये विमर्श-विलासी वामपंथी आज तक किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुचे। लेकिन हमें तो पहुचना होगा न? कश्मीर को भारतीय संसद ने भारत का अभिन्न अंग मानते हुए प्रस्ताव पारित किया है। मतलब, अब विमर्श इस मामले पर खत्म है। वह भारत का हिस्सा है इसपर विमर्श करने वालों का सीधा प्रतिवाद होना चाहिए। काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इसपर कोई बहस ही स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। आपको पता तो है न, कला समाज के लिए है या कला, कला के लिए ? केवल इसी बात पर बहस करते हुए इन कलमगिद्धों ने कई पीढ़ियां खर्च कर दी हैं। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से लेकर हैबिटेट सेंटर और नेहरू परिवारों के नाम वाले सैकड़ों ऐसे भवन हमारे पैसों के बिजली बिल से सभागारों का वातानुकूलन करती रही और ये विमर्श-भोगी विमर्श करते रहे, फिर भी इस ‘यक्ष प्रश्न’ को नहीं सुलझा पाए कि कला आखिर किसलिए?

पर एक बार इसी बात को जरा दूसरे नजरिये से थोड़ा उलटा भी सोचिये। ऐसे तमाम विमर्श आखिर होते किस बात के लिए हैं? ज़ाहिर है किसी फैसले पर पहुचने के लिए ही न? लेकिन फैसले की जहां दूर-दूर तक कोई संभावना ही नहीं हो, वहां केवल बहस पर बहस करते रहना, एक ही विषय पर अनंत काल तक चर्चारत रहना आखिर क्या है? सीधी सी बात है कि यह मुफ़्तखोरी का सबसे बड़ा नमूना है। वामपंथी खेमें द्वारा प्रायोजित विमर्श ऐसे ही हुआ करते हैं। आप दिमाग पर जोर डालिये और याद कीजिये कि सभी तरह के विमर्श का इकलौता ठेकेदार वामपंथी समूह आजतक विमर्श के नाम पर मुफ्त की रोटी तोड़ते हुए, कितने मामलों को उसके निष्कर्ष तक पहुचाने में सफल रहा है? मेरी समझ से एक भी नहीं। है न? तो केवल विमर्श के पैरवीकार बन कर देश पर बोझ बने इन बुद्धि-विलासियों को पालते रहने का कोई फ़ायदा है क्या? इनकी बुद्धिविलासिता के लिए न केवल हम अपनी गाढ़ी कमाई देते रहते हैं बल्कि समय-समय पर दर्ज़नों जवान और नागरिक भी इनके लिए बलिदान करते रहें हैं। हमे सोचना होगा कि क्या इतना महंगा और अंतहीन विमर्श आपको चाहिए क्या?

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देश की आम जनता ने कश्मीर से लेकर बस्तर तक ऐसा खूब सारा विमर्श झेला है। किसी में भी विमर्श पर ये विमर्श-विलासी आज तक किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुचे। लेकिन हमें तो पहुचना होगा न? कश्मीर को भारतीय संसद ने भारत का अभिन्न अंग मानते हुए प्रस्ताव पारित किया है। मतलब, अब विमर्श इस मामले पर खत्म है। वह भारत का हिस्सा है इसपर विमर्श करने वालों का सीधा प्रतिवाद होना चाहिए। काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इसपर कोई बहस ही स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। आपको पता तो है न, कला समाज के लिए है या कला, कला के लिए ? केवल इसी बात पर बहस करते हुए इन कलमगिद्धों ने कई पीढ़ियां खर्च कर दी हैं। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से लेकर हैबिटेट सेंटर और नेहरू परिवारों के नाम वाले सैकड़ों ऐसे भवन हमारे पैसों के बिजली बिल से सभागारों का वातानुकूलन करती रही और ये विमर्श-भोगी विमर्श करते रहे, फिर भी इस ‘यक्ष प्रश्न’ को नहीं सुलझा पाए कि कला आखिर किसलिए?
            क्या बावजूद इसके, देश के समक्ष नित उभरते नए सवालों से जूझने और निष्कर्ष तक पहुचाने का भार फिर भी आप इन्हीं भुक्खड़ों पर डाले रखेंगे? नहीं भाई। वाम के बदले अब अवाम को सीधे संवाद के दायरे में लीजिये। उनसे विमर्श कीजिये। निष्कर्ष तक पहुचिये और फिर प्राप्त नतीजों को लागू करने के लिए हर स्तर पर तैयार हो जाइए। कोई भी सवाल नियत समय तक ही विचाराधीन रहना चाहिए। जब पांडव मरे पड़े होते हैं तब युधिष्टिर को तुरत जबाव तलाशने होते हैं। विक्रम भी काफी समय तक बेताल को कन्धे पर लादे नहीं फिर सकते। इन सभी को धाराशायी करने की जरुरत है, हर मोर्चे पर चाहें विमर्श का मोर्चा हो अथवा उसके बाद की क्रिया हो।

                                                                                                                                                                (ये लेखक के निजी विचार हैं)