भारत की सांस्कृतिक विरासत हैं जनजातीय लोक-कलाएं

नेशनलिस्ट डेस्क
इतिहास के तमाम अचिन्हित पन्नों एवं भारतीय भूगोल की तमाम अनहद सीमाओं में अपनी विविधताओं से परिपूर्ण संस्कृतियों एवं कलाओं की गुमनाम छाप छोड़ने वाली तमाम जनजातियां वर्तमान में मुख्यधारा के सांस्कृतिक मंचों के नेपथ्य में जाने के बावजूद विमर्शों में कायम हैं। वर्तमान भारत के भूगोल और प्राचीन भारत के इतिहास के बीच यहाँ के मूल निवासियों को लेकर एक भ्रम की स्थिति आज भी सांस्कृतिक विमर्शों का हिस्सा बनी हुई है। हलाकि तमाम लेखकों एवं इतिहासकारों द्वारा इन जनजातियों को ही भारतवर्ष के मूल निवासी के तौर पर स्वीकार किया गया है। इन जनजातियों को आदिवासी कहे जाने के तर्क के रूप में तमाम इतिहासकार यही कहते हैं कि आदिकाल के मूल भारतीय भूभाग के निवासी होने के कारण बाहर से भारत आये तत्कालीन समाजों द्वारा इन्हें आदिवासी कहा गया होगा। भारत के मध्यप्रदेश,उड़ीसा,बिहार,महाराष्ट्र,त्रिपुरा,मिजोरम,नागालैंड जैसे राज्यों में तो सांस्कृतिक रूप से इन जनजातियों का अलग ही महत्व है। दक्षिण अफ्रीका के बाद सबसे ज्यादा जनजातियों वाले देश के रूप में भारत में मुख्यतया गोंड,संथाल,भील,लाहौल,साम्हौल, सहित तमाम अन्य छोटी-बड़ी जनजातियां अपने सांस्कृतिक विविधाताओं के साथ पाई जाती हैं। आधुनिक बाजारवादी कलाओं से इतर इन जनजातियों की सांस्कृतिक विविधताओं के कला पक्षों पर अगर नजर डालें तो रचनाशीलता एवं कलात्मक अभिव्यक्ति का अनोखा संगम देखने को मिलता है। मुख्यधारा के इस प्रगतिशील समाज से अलग विपन्न जीवन यापन कर रहीं ये जनजातियां कला एवं संस्कृति के पैमानों पर बेहद संपन्न नजर आती हैं। अत: यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कला के संस्कृति के मामले में ये समुदाय आधुनिक प्रगतिशील समाज की अपेक्षा पहले से ही ज्यादा विकसित रहा है। सौदर्य और श्रृंगार की साज साज सज्जा से लेकर रण कौशल के युद्धाभ्यास तक एवं चित्रकारी और शिल्पकला से लेकर कढाई-बुनाई की घरेलु कलाओं तक, हर स्तर पर जनजातियों का यह समाज बेहद परिपक्व एवं संपन्न नजर आता है। सांस्कृतिक रूप से अगर देखा जाय तो इनके अपने धार्मिक संस्कार हैं, त्यौहार हैं एवं सामाजिक मूल्यों का निर्वहन करने वाले लोकाचार हैं।मध्यप्रदेश में सबसे बड़ी संख्या में निवास करने वाली भील जनजाति अपनी तीरंदाजी कौशल के लिए ख़ासा मशहूर है। जिस तीरंदाजी की कला को आज वैश्विक खेलों में स्थान दिया गया है वो तीरंदाजी की कला भील जनजाति के पास आज से हजारों साल पहले आ चुकी थी।

आज जब बाजारवाद के इस दौर में कलाओं का भी बाजार तैयार हो चुका है और कलाओं की प्रस्तुतियाँ निवेश के तौर पर होने लगीं है ऐसे में इन जनजातीय कलाओं की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। बाजार की चकाचौंध से दूर अपनी परपराओं और सांस्कृतिक धरोहरों को जीवित रखी इन जनजातियों की लोक कलाओं में कला पक्ष का एक ईमानदार सच्चापन नजर आता है। इन तमाम जनजातियों द्वारा स्वसृजित एवं स्वअर्जित की हुई कलाओं एवं संस्कृतियों में मौलिकता के दर्शन होते हैं और कहीं भी ऐसा कुछ नहीं लगता कि जैसे कुछ बनावटी या कृत्रिम हो।

दरअसल भील शब्द की उत्पति ही द्रविण शब्द “बीलू” से हुई है जिसका हिन्दी अर्थ धनुष होता है। इस आधार पर यह कहना गलत नहीं प्रतीत होता कि भील समुदाय अपनी तीरंदाजी कला के लिए सभी जनजातियों के बीच ख़ासा मशहूर रहा है। तीरंदाजी के अलावा भील जनजाति के लोग पिथौरा कला,काष्ठ कला एवं बांस कला में भी माहिर होते हैं लेकिन इस समुदाय द्वारा पिथौरा कला में सर्वाधिक उल्लेखनीय योगदान दिया गया है। इस समुदाय द्वारा मूलतया घरों की दीवारों पर दुधिया रंग में तमाम भित्ति चित्रों एवं कलाकृतियों को उकेरे जाने और मिट्टी के घरों को इन्ही कलाकृतियों से सजाये जाने को ही पिथौरा कला कहा गया गया है। दीवारों पर उकेरे गए भित्ति चित्र भील समाज के धार्मिक आस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन भित्ति चित्रों को बनाने के पीछे भील समुदाय की मंशा यही रहती थी कि इन्हें बनाने से इश्वर उनकी रक्षा करेंगे और उनके घरों में सौहार्द का वातावरण बना रहेगा। बांस और नरकुल की से बानी घरेलु जरुरत की वस्तुओं को बनाने की कला में यह जनजाति काफी निपुण नजर आती है। भील समाज द्वारा बांस की पत्तियों की मदद से बनाये गए डलिया,टोकनी जैसी घरेलु काम-काज की वस्तुओं का इस्तेमाल प्रगतिशील समाज द्वारा भी शौकिया तौर पर खूब किया जाता है। भील जनजाति की कलाओं में उनकी दैवीय आस्था के भी बखूबी दर्शन होते हैं। भील जनजाति के ही राठवा समाज द्वारा पिथौरा को भगवान का दर्जा देकर पूजा जाता रहा है। बेशक पिथौरा कला के प्रयोग के पीछे भील जनजाति की धार्मिक आस्था एक वजह हो लेकिन कलात्मकता के नजरिये से इन चित्रों में इस समुदाय के चित्रकारी की कला के ही दर्शन होते हैं। पिथौरा की चित्रकारी में घोड़े-गाय आदि के चित्रों का प्रयोग बहुतायत देखने को मिलता है। मध्यप्रदेश की ही एक दूसरी बड़ी संख्या वाली जनजाति गोंड भी अपनी अनोखी सांस्कृतिक कलाओं के लिए काफी मशहूर रही है। चित्रकारी की कला में गोंड जनजाति के लोग सर्वाधिक निपुण थे और उनके द्वारा अलग तरह के चित्र उकेरे जाते है। चित्रों के फीकापन में रंग भरना एवं अकलात्मक वस्तुओं को भी अपनी कलात्मकता से रंगीन कर दे देना इस जनजाति के चित्रकारों के चित्रकारी का सबसे नायाब कौशल है। दैनिक जीवन से जुड़े तमाम घटनाक्रमों जिनमे ऋतुएं,जन्म,विवाह आदि संस्कारों को अपने द्विविमीय चित्रों के माध्यम से बखूबी प्रस्तुत करने एवं रंग-बिरंगी आकृतियों से घटनाओं का प्रस्तुतीकरण करने की कला में यह समुदाय शुरू से ही पारंगत रहा है। भील एवं गोड जनजाति के अलावा झारखंड में निवास करने वाले संथाल जनजाति के लोगों का खास रुझान चित्रकला के साथ-साथ नृत्य कला में भी रहा है। वैसे तो लगभग सभी जनजातियों की अपनी कोई ना कोई नृत्यकला रही है जिसका प्रदर्शन उनके द्वारा भगोरिया इन्द्,गलबाबाजी,गाता,नवासी जैसे जनजातीय समाज के मौसमी त्योहारों पर धूम-धाम से किया जाता है। परन्तु संथाल जनजाति का रुझान नृत्य एवं संगीत की कला में विशेष रहा है। अपने पारंपरिक वेष-भूषा में सजे संथाली जनजाति के स्त्री-पुरुष के समुदायों द्वारा स्थानिय महोत्सवों में श्रृंखलाबद्ध होकर ताशे एवं नगाड़े पर नृत्य प्रस्तुत किया जाना बेहद आकर्षक वातावरण उत्पन्न करता है । संथाल जनजाति की पारम्परिक कला के रूप में कोहबर कला का प्रचलन वर्तमान में काफी व्यापक स्तर पर बिहार सहित उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्रों में अन्य समाजों में भी होने लगा है। कोहबर और सोहराय कलाओं के अलावा संथाल जनजाति के लोग ज्यामितीय चित्रकारी एवं पाषाण भित्ति चित्रों के कलाकारी में में खासे पारंगत होते हैं। पाषाणीय भूभागों में रहने का व्यापक प्रभाव उनके कलात्मक अभिव्यक्तियों में भी खुलकर प्रदर्शित होता है। इन बड़ी जनजातियों के अलावा अन्य कई राज्यों एवं भूभागों की स्थानीय जनजातियों की अपनी लोक कलाएं जैसे चित्रकारी,नृत्य,हस्तकला,मिट्टी कला, काष्ठ कला, युद्ध कला,गीत-संगीत एवं वाद्य कला आदि भी खासी आकर्षक हैं। तमाम जनजातियों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली गोड़ी पैठाई, बारेला,कोरकू,कर्मा,झांझ पाटा,गेंडी नृत्य आदि नृत्य कलाएं अत्यंत मनोहारी होती हैं।नृत्य कला के अलावा इन जनजातियों के भेष-भूषा,साज-सज्जा,खान-पान एवं आभूषणों आदि में भी तमाम विविधताओं के दर्शन होते हैं।
आज जब बाजारवाद के इस दौर में कलाओं का भी बाजार तैयार हो चुका है और कलाओं की प्रस्तुतियाँ निवेश के तौर पर होने लगीं है ऐसे में इन जनजातीय कलाओं की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। बाजार की चकाचौंध से दूर अपनी परपराओं और सांस्कृतिक धरोहरों को जीवित रखी इन जनजातियों की लोक कलाओं में कला पक्ष का एक ईमानदार सच्चापन नजर आता है। इन तमाम जनजातियों द्वारा स्वसृजित एवं स्वअर्जित की हुई कलाओं एवं संस्कृतियों में मौलिकता के दर्शन होते हैं और कहीं भी ऐसा कुछ नहीं लगता कि जैसे कुछ बनावटी या कृत्रिम हो। जनजातियों के लोक कलाओं की यह सांस्कृतिक विरासत कोई एक दिन में खड़ी की हुई संरचना नहीं बल्कि ये तो आदिवासीयों द्वारा आदिकाल से अर्जित की हुई सम्पदा है जिसकी नक़ल करके आज दुनिया की ना जाने कितनी बाजारवादी कलाएं फल-फुल रहीं हैं। सामाजिक और आर्थिक रूप से विपन्न यह समाज कला और संस्कृति के मामले में आधुनीक समाज की कला संस्कृति का मूल श्रोत नजर आता है। तमाम भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विविधताओं के बावजूद इन अलग-अलग जनजातियों में कला प्रेमी होने की अद्दभुत समानता इस बात को प्रमाणित करती है कि समाज को कला का पहला पाठ जनजातियों से ही मिला है। अंतत: यह कहना उचित प्रतीत होता है कि कला की प्रथम खोज इन्ही आदिवासी जनजातीय समाजों द्वारा की गयी होगी।