अब बोलो अखलाक की मौत पर बवाल काटने वालों !

आर.के सिन्हा 

पिछले साल 30 सितंबर को राजधानी से सटे नोएडा के बिसहाड़ा गांव में एक शख्स को अपने घर में गौमांस रखने के आरोप में उग्र भीड़ ने मार डाला था। ज़ाहिर है घर के फ्रिज में गौमांस उसने पूजा करने के लिए तो रखा नहीं होगा, खाने के लिए ही रखा होगा। घटना के बाद तमाम तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता मृतक मोहम्मद अखलाक के घर पहुंचने लगे, ठीक उसी तरह जैसे बीच जंगल में मधुमक्खी का बड़ा छत्ता तूफान में गिर जाये तो भालू-बन्दर उस पर टूट पड़ते हैं, वे उसके घर में जाकर संवेदना कम और सियासत ज्यादा करते नजर आ रहे थे।

अब उत्तरप्रदेश सरकार के मथुरा स्थित लैब के फोरेंसिक रिपोर्ट से यह साफ हो गया है कि भीड़ के शिकार हुए मोहम्मद अखलाक के घर से मिला मांस “गोमांस” ही था। फोरेंसिक रिपोर्ट के नतीजे आने के बाद अब उन सियासी रहनुमाओं से दो सवाल पूछने करने का मन कर रहा है, पहला क्या वह अखलाक की हत्या के बाद उसके घरवालों से संवेदना जाहिर करने के लिए बिसहाड़ा गांव पहुंचे थे? दूसरा, क्या वे अखलाक की मौत पर अफसोस जता रहे थे? अगर वे अफसोस जता रहे थे तो ठीक है, पर क्या वे इस क्रम में अखलाक के घर में रखे हुए गौमांस को सही ठहरा रहे थे? उत्तर प्रदेश में गौमांस की बिक्री से लेकर इसके सेवन पर कानूनी रोक है। इसलिए ये सवाल पूछा जा रहा है कि क्या अखलाक को अपने घर में गौमांस रखना चाहिए था या उसका सेवन करना चाहिए था?

मुझे याद आ रहा है जब अखलाक की मौत के बाद सेक्युलर बिरादरी सोशल मीडिया पर एक्टिव हो गई थी और मोमबती मार्च निकाल रही थी। ये सब करने की उसने डाक्टर नारंग के कत्ल के बाद जरूरत नहीं समझी थी। क्यों? इस सवाल का जवाब इन्हें देना होगा। क्या केजरीवाल ने कभी सोचा कि अब डाक्टर पंकज नारंग की पत्नी, सात साल के बेटे और विधवा मां की जिंदगी किस तरह से गुजरेगी। उस अभागे डा. पकंज नारंग का कसूर इतना ही था कि उन्होंने कुछ युवकों को तेज मोटर साइकिल चलाने से रोका था। बस इतनी सी बात के बाद कथित बंगलादेशी  युवकों ने डाक्टर नारंग को मार दिया।

संवेदनाओं का सच

अखलाक के घर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और असदुद्दीन ओवैसी से लेकर माकपा की वृंदा करात तक ने बाकी तमाम दलों के नेताओं ने हाजिरी दी। यानी अखलाक की जघन्य हत्या के बाद उसके घर नेताओं का तांता लगा ही रहा। केन्द्रीय पर्यटन और संस्कृति राज्यमंत्री महेश शर्मा ने खुद अखलाक के घर जाकर कहा, “यह हमारी संस्कृति पर धब्बा है और सभ्य समाज में इस तरह की घटनाओं का कोई स्थान नहीं है। अगर कोई कहता है कि यह पूर्व नियोजित था तो मैं इससे सहमत नहीं हूं।” इसके बावजूद विपक्ष के नेताओं को तो मानो सरकार को घेरने का मौका मिल गया हो। कानून-व्यवस्था राज्य का दायित्व है। अख़लाक़ के हिन्दू मित्र ने जब पुलिस को फोन किया तब तो पुलिस आई नहीं, जब उसकी मौत की सूचना दी गई तब पुलिस आई। यानी उस घटना को रोक पाने में उत्तर प्रदेश का पुलिस महकमा पूरी तरह फेल हुआ। लेकिन धर्मनिरपेक्ष नेताओं ने सारा दोष केन्द्र सरकार पर डाल दिया और पूरे देश में असहिष्णुता का माहौल है, इसका नारा बुलंद कर दिया। जिसे वामपंथी मीडिया ने पुरजोर हवा देकर देश भर में फैलाने का काम कर दिया। अपने जहरीले बयानों के लिए बदनाम हो चुके ओवैसी ने अखलाक के कत्ल को ‘पूर्व नियोजित हत्या’ बताया। ओवैसी ने तो यहां तक कहा, ‘प्रधानमंत्री मोदी ने गायिका आशा भोंसले के बेटे की मौत पर शोक जताया पर उन्हें अखलाक की मौत पर संवेदना व्यक्त करना सही नहीं लगा।’ अब जरा देख लीजिए की ओवैसी किस तरह से लाशों पर सियासत करते हैं।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी पीछे रहने वाले नहीं थे। उन्होंने गोवध और गोमांस खाने को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधते हुए कहा, “मोदी इसी तरह के मुद्दों को उठाना चाहते हैं।” सपा नेता और मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई शिवपाल यादव ने अखलाक की हत्या के लिए महेश शर्मा का इस्तीफा तक मांग लिया। अब उन्हें कौन समझाए कि स्थानीय सांसद के हाथ में कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी होती नहीं। तो फिर शिवपाल यादव क्यों महेश शर्मा को केंद्रीय मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने की मांग कर रहे थे? यानी कुछ कथित नेता अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को फांसी पर लटकाने की भी मांग कर सकते हैं। अखलाक के मारे जाने से तृणमूल कांग्रेस के सांसद सुल्तान अहमद को तो बैठे-बिठाए प्रधानमंत्री मोदी पर वार करने का मौका मिल गया। उन्होंने मोदी को कोसते हुए कहा कि वे देश में सांप्रदायिक घटनाओं पर बयान दें और संघ व इस तरह के संगठनों को सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने से रोकें। फिर वही सवाल कि बिसाहाड़ा गांव उत्तर प्रदेश में है और वहां की कानून-व्यवस्था का मोदी की केन्द्र सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। इसके बावजूद बयानवीर तृणमूल नेता मोदी को कोसने से बाज नहीं आए।

भले ही देश की जनता ने भाकपा को नकार दिया हो पर इसके महासचिव एस। सुधाकर रेड्डी ने बयानवीर धर्म का निर्वाह किया। वे भी अखलाक की हत्या के लिए मोदी पर गरजते-बरसते रहे। रेड़्डी साहब की तब जुबान सिल जाती है जब उनकी पार्टी के लफंगे केरल और पश्चिम बंगाल में संघ के कार्यकर्ताओं को सरेराह मार देते हैं। आठ-दस साल के बच्चों को भी नहीं बख्शा जाता और उसके भी हाथ-पांव तोड़ दिए जाते हैं।

और अपनी टुच्ची राजनीति करने में माहिर हो चुके दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी अखलाक के परिवार से मिलने के लिए उनके गांव पहुंचे। हालांकि तब तक नेताओं की कथित संवेदनाओं को ले-लेकर अखलाक के घरवाले पक चुके थे। उन्होंने केजरीवाल से मिलने तक से इंकार कर दिया था। याद रहे ये वही केजरीवाल हैं, जिन्हें विकासपुरी में बांग्लादेशियों के हाथों मारे गए डाक्टर पकंज नारंग के परिवार से मिलने की कभी फुर्सत नहीं मिली। जनकपुरी की घटना से सारी दिल्ली सहम गई थी। लेकिन केजरीवाल को डाक्टर के परिजनों से मिलना जरूरी नहीं लगा था। तो आप समझ गए होंगे किस तरह का चरित्र है हमारे महान धर्मनिरपेक्ष नेताओं का।

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डराने वाली चुप्पी

डाक्टर पंकज नारंग की हत्या पर सेक्युलर बिरादरी की चुप्पी डराने वाली थी। इसके चलते ये एक्सपोज भी हो गए थे। इन्होंने अखलाक और डा. नारंग की हत्याओं में भी फर्क करना शुरू कर दिया था। ये कहते रहे कि डा।नारंग की हत्या सांप्रदायिक नहीं है। ज़िन्दगी बचाने वाले डॉक्टर की सरेआम हत्या कर दी गई, पर खामोश रहे ये ‘सद्बुद्धिजीवी’। तब कहां गई थी असहिष्णुता? विकासपुरी में डा. नारंग की हत्या को बिसाहड़ा कांड वाले अखलाख से अलग बताने वाले ‘सद्बुद्धिजीवी’ तमाम कुतर्क देने लगे थे।

मुझे याद आ रहा है जब अखलाक की मौत के बाद सेक्युलर बिरादरी सोशल मीडिया पर एक्टिव हो गई थी और मोमबती मार्च निकाल रही थी। ये सब करने की उसने डाक्टर नारंग के कत्ल के बाद जरूरत नहीं समझी थी। क्यों? इस सवाल का जवाब इन्हें देना होगा। क्या केजरीवाल ने कभी सोचा कि अब डाक्टर पंकज नारंग की पत्नी, सात साल के बेटे और विधवा मां की जिंदगी किस तरह से गुजरेगी। उस अभागे डा। पकंज नारंग का कसूर इतना ही था कि उन्होंने कुछ युवकों को तेज मोटर साइकिल चलाने से रोका था। बस इतनी सी बात के बाद कथित बांग्लादशी युवकों ने डाक्टर नारंग को मार दिया।

जान बचाने वालों से दूरी

एक बात और, अखलाक के गांव में सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले नेता उस हिन्दू परिवार से नहीं मिले जिसने अखलाक के परिवार को पनाह दी थी। बिसाहड़ा में जब उग्र भीड़ अखलाक के घर को घेरे हुए थी तब पड़ोस में रहने वाले राणा परिवार ने अखलाक के परिवार की तीन महिलाओं, एक पुरुष और एक छोटे बच्चे को अपने घर में शरण देकर जान बचाई थी। यही नहीं, अखलाक के पड़ोस की शशि देवी और विष्णु राणा ने अपने घर में रात भर पहरा दिया और भीड़ से अखलाक के परिवार की हिफाजत की।

क्या राहुल गांधी से लेकर केजरीवाल को इस हिन्दू परिवार से नहीं मिलना चाहिए था? इस परिवार ने अपनी जान की परवाह किए बगैर अखलाक के परिवार के कुछ सदस्यों को मौत के मुंह से बचाया। पर ये उस हिन्दू परिवार से नहीं मिलेंगे। ये तुष्टिकरण की सियासत जो करते हैं। क्योंकि ये तमाम नेता अखलाक से नहीं बल्कि मुसलमानों को अपनी तरफ लुभाने के लिए बिसाड़ा पहुंचे थे। लेकिन इनके असली चेहरे से अब देश वाकिफ हो चुका है। इसलिए ही ये देशभर में खारिज हो रहे हैं। यदि अखिलेश में हिम्मत है तो वे बिसहाडा में गोकशी करने वाले गोमांस रखने वाले और गोमांस का सेवन करने वाले लोगों की पहचान कर उन पर अपने ही राज्य में लागू कानून के तहत गिरफ्तार करें, मुकदमा चलाने और जिन हिन्दू निर्दोष नवयुवकों को बिना सबूत, बिना वजह जेल में बंद कर रखा है उन्हें तत्काल रिहा करें, नहीं तो आने वाले चुनाव में जनता उन्हें इस साम्प्रदायिकता और धर्म के आधार पर भेदभाव करने की सजा ज़रूर देगी।

(लेखक राज्यसभा में संसद सदस्य हैं)