लालू के दोषी करार दिए जाने पर राजद की शर्मनाक राजनीति !

लालू यादव और उनका कुनबा प्रत्येक अवसर पर राजनीति तलाश लेते हैं। चारा घोटाला मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद यह बात एकबार फिर प्रमाणित हुई। फैसला आने के पहले लालू कुनबे की तरफ से कहा जा रहा था कि न्यायपालिका के प्रति उनके मन में पूरा विश्वास और सम्मान है। वहाँ न्याय होगा। लेकिन, न्यायपालिका ने जब लालू को दोषी करार दिया, तो विचार बदल गया। राजद की ओर से लालू समेत अन्य नेताओं ने दो प्रकार के बयान दिए। एक में कहा गया कि यह सब भाजपा और जदयू की साजिश है। दूसरे में विशुद्ध जातिवादी नजरिया था। जाहिर है कि राजद इस मसले को जातिवादी ढंग से राजनीतिक रंग देने का मन बना चुका है, जो कि बेहद शर्मनाक है।

भारत की संवैधानिक व्यवस्था के संचालन में न्यायपालिका की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। न्याय के माध्यम से वह संविधान का संरक्षण करती है। इसलिए उसे विशेष सम्मान दिया जाता है। निचली अदालत के फैसले से असन्तुष्ट होने की दशा में ऊपरी अदालत में अपील की व्यवस्था भी न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा है। ऐसे में, न्यायिक निर्णय पर राजनीतिक प्रतिक्रिया से बचना चाहिए। लेकिन अक्सर देखा जाता है कि कई राजनेता अपनी सुविधा के अनुरूप न्यायिक निर्णय पर टिप्पणी करते हैं।

चारा घोटाले के एक और मामले में लालू यादव को दोषी करार दिए जाने के बाद इसका नजारा देखा गया। इधर दो हाईप्रोफाइल  मामले चर्चा में रहे। टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में आरोपी राजा और कन्नीमोई रिहा हुए, जबकि चारा घोटाले में लालू यादव दोषी करार दिए गए। स्पेक्ट्रम मामले में सीबीआई और चारा घोटाले में लालू यादव को ऊपरी अदालत में अपील करने का अधिकार है। दोनों ऐसा करेंगे  भी। इसलिए इसपर राजनीति नहीं होनी चाहिए, क्योकिं संबंधित कोर्ट ने उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर फैसला सुनाया। जिनको आपत्ति हो, वह अधिक साक्ष्यों के साथ ऊपरी अदालत में जा सकते हैं।

प्रश्न और रहस्य तो दोनों मसलों में हैं। क्या यह रहस्य कम है कि 2001 की कीमत पर 2008 में स्पैक्ट्रम आवंटित किए गए। इसके अलावा चारा घोटाले में तो बेशुमार तथ्य चर्चा में रहे हैं। खूब फर्जीवाड़ा हुआ। यह भी ध्यान नहीं दिया गया कि जिन वाहनों पर मवेशियों को ले जाने का रिकॉर्ड दिखाया गया, वह स्कूटर थे, जिनके नम्बर कागज में दर्ज हैं। विधानसभा की निवेदन समिति ने घोटाले की जांच कर रिपोर्ट बनाई थी। इसे विधानसभा में प्रस्तुत नहीं किया गया।

सांकेतिक चित्र

दरअसल तब लालू यादव सत्ता के अहंकार में थे। उन्हें विश्वास था कि उनका समीकरण सदैव कायम रहेगा। सुशिल कुमार मोदी सहित कई नेताओं ने जनहित याचिकाएं दायर की थीं। अंततः राज्य सरकार की इच्छा के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट ने पटना कोर्ट की मॉनिटरिंग में सीबीआई से जांच का निर्देश दिया था।

जाहिर है कि पूरे मसले पर न्यायिक निगरानी थी। किन्तु, लालू यादव और उनका कुनबा प्रत्येक अवसर पर राजनीति तलाश लेते हैं। चारा घोटाले पर मिली सजा से यह बात एकबार फिर प्रमाणित हुई। फैसला आने के पहले कहा जा रहा था कि न्यायपालिका पर पूरा विश्वास और सम्मान है। वहाँ न्याय होगा। न्यायपालिका ने उन्हें दोषी करार दिया, तो विचार बदल गया। राजद की ओर दे दिग्गजों ने दो प्रकार के बयान दिए। एक में कहा गया कि यह सब भाजपा और जदयू की साजिश है। दूसरे में विशुद्ध जातिवादी नजरिया था।

कहा गया कि यदि वह यादव की जगह मिश्रा होते तो छूट जाते। ज्ञात हो कि चारा घोटाले के एक अन्य आरोपी पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र को कोर्ट ने बरी किया है। कोर्ट का यह फैसला न्यायिक प्रक्रिया के अनुरूप है। सजा देने और छोड़ने  की विस्तृत विवेचना की गई है। जाहिर है कि राजद इस मसले को जातिवादी ढंग से राजनीतिक रंग देने का मन बना चुका है, जो कि बेहद शर्मनाक है। अपने जातीय समीकरण के अनुरूप भ्रमित करने का प्रयास किया जा रहा है। इसमें निशाने पर मिश्र के अलावा भाजपा और जदयू भी हैं। बिडंबना देखिये कि बिहार के मुख्यमंत्री, भारत के प्रधानमंत्री पिछड़ा वर्ग से ही आते हैं। ऐसे में, राजद के पिछड़ा कार्ड पर कौन विश्वास करेगा।

ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जो व्यावसायिक मानसिकता से प्रेरित होकर समाजसेवा या राजनीति में आते हैं। जब ऐसे लोग सत्ता में होते है, तब अपने कुनबे को वैभव की बुलन्दी पर पहुंचना उनकी प्राथमिकता होती है। जब अवैध सम्पत्ति पर शिकंजा कसता है, तब उन्हें जातिवाद की याद आती है।

मतलब पहले सत्ता प्राप्ति के लिए  जातीय मजहबी समीकरण बनाये जाते है। मकसद पूरा हुआ तो कुनबे के रंक से राजा बनने में देर नहीं लगती। इसी अवैध सम्पति पर जब पर न्यायिक निर्णय आता है, तब सजा के अनुरूप प्रतिक्रिया बदल जाती है। चारा घोटाले पर कोर्ट के निर्णय पर जातिवादी प्रतिक्रिया आपत्तिजनक है। ए. राजा दलित और कन्नीमोई पिछड़ा वर्ग की हैं। कोर्ट से दोनों रिहा हुए। ऐसे में राजद नेताओं के बयान बेमानी ही कहे जा सकते हैं। इस प्रकार की टिप्पणियों से नेताओं को बचना चाहिए।

(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)