अंतर्कलह के ड्रामे से अखिलेश राज की विफलताओं को छुपाने की बेजा कवायद कर रहे मुलायम !

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे पास आते जा रहे हैं, सूबे की मौजूदा सरकार की पीड़ा लगातार बढ़ती नजर आ रही है। प्रदेश में डूबती  सियासी विरासत को संजोने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं, जिसमें सूबे की सपा सरकार और सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह में भी तकरार देखने को मिल रही है। दंगो, भ्रष्टाचार, प्रशासनिक विफलताओं से भरी सियासी पारी को बचाने के लिए सपा कुनबा तरह-तरह के पैंतर चल रहा है। सूबे की सियासत में सपा कुनबे की कलह आज की नई लीला नहीं है, यह चुनाव करीब आते ही प्रत्येक पांचवें वर्ष पांव पसारने लगती है। इसके पहले 2012 के चुनावी दौर में चाचा और भतीजे को सत्ता-सुख को लेकर खिंचतान देखने को मिली थी, तबसे यह सियासत चली आ रही है, अपने-अपने सियासी वजूद को बनाए रखने और अपने हितों के लिए इस सियासी पार्टी में नौटंकी की शुरूआत बहुत पहले ही हो चुकी थी। सूबे की मौजूद सरकार अपने कथित विकासरूपी रथ को आगे खिंचने की फिराक में दिख रही है, तो वही पार्टी का एक धड़ा किसी भी कीमत पर जाकर अपने सियासी अमले को बचाये रखने की फिराक में लगा हुआ है।

पहले अखिलेश और रामगोपाल यादव का निष्कासन और अगले दिन ही घर वापसी के अपने ही कुछ गूढ़ सियासी निहितार्थ हैं, जिसमें मौजूदा सरकार की प्रशासनिक स्तर पर नाकामी छुपाने और दंगों से जनता की नजर हटाना प्रमुख है। वहीँ दूसरी और केन्द्र सरकार के जन-कल्याण के कार्यों पर से जनता का ध्यान भटकाना भी इनका एक उद्देश्य है। सूबे की सरकार के समय प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था, कानून और प्रशासनिक तंत्र पूरी तरह विफल रहा है। हत्या, बलात्कार आदि जघन्यतम अपराधों में वृद्धि और अन्य सामाजिक बुराईयॉं प्रदेश के सामाजिक ताने-बाने को पूरी तरह से ध्वस्त कर चुकी हैं, जिसको छुपाने के लिए प्रदेश की सियासत में सत्तारूढ़ सपा का यह सब ड्रामा चल रहा है।

चाचा-भतीजे के बीच वर्चस्व को लेकर शुरू हुआ राजनीतिक ड्रामा कभी निष्कासन तो कभी निष्कासन रद्द के मुलायमी यूटर्न के बीच ही चलता दिख रहा है। क्षेत्र में भाजपा के विकासरथ को धुमिल करने के लिए यह एक सूझबूझ भरी रणनीति का हिस्सा है। पहले अखिलेश और रामगोपाल यादव का निष्कासन और अगले दिन ही घर वापसी के अपने ही कुछ गूढ़ सियासी निहितार्थ हैं, जिसमें मौजूदा सरकार की प्रशासनिक स्तर पर नाकामी छुपाने और दंगों से जनता की नजर हटाना प्रमुख है। वहीँ दूसरी और केन्द्र सरकार के जन-कल्याण के कार्यों पर से जनता का ध्यान भटकाना भी इनका एक उद्देश्य है। सूबे की सरकार के समय प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था, कानून और प्रशासनिक तंत्र पूरी तरह विफल रहा है। हत्या, बलात्कार आदि जघन्यतम अपराधों में वृद्धि और अन्य सामाजिक बुराईयॉं प्रदेश के सामाजिक ताने-बाने को पूरी तरह से ध्वस्त कर चुकी हैं, जिसको छुपाने के लिए प्रदेश की सियासत में अनुशासनहीनता के नाम पर पहले निष्कासनऔर निष्कासन रद्द का खेल चल रहा है।

प्रदेश में अशिक्षा, गरीबी और भुखमरी का बोलबाला है, जिसको खत्म करने की दिशा में सूबे की राजनीति में पिछले पांच साल में सुधार की बेला न के बराबर दिखी है, जिसको छुपाकर पुनः सियासत पर कब्ज़ा जमाने के लिए इस तरह की नौटंकी पिछले एक साल से रची जा रही है। अभी हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट में प्रदेश में शिक्षा की खस्ता हालत का जिक्र किया गया है, और प्रदेश के सरकारी स्कूलों की स्थिति भयावह है, शिक्षकों की भारी कमी का भी जिक्र किया जा चुका है।

अखिलेश कांग्रेस के समर्थन में दिखकर यह इरादा पहले ही जता चुके है, कि वर्तमान में बस भाजपा का रथ रोकना ही प्रदेश में एकमात्र मकसद है। जो लक्ष्य बिहार में साफ-साफ महागठबंधन ने दिखाई थी, वही स्थिति इस वक्त सूबे में धीरे-धीरे  स्थिति साफ हो रही है। अखिलेश जहां स्वच्छ छवि का दाँव खेलकर सूबे की जनता को अपने पाले में खींचने की जुगत मे लगे है, वही पार्टी का एक हिस्सा अपने परंपारिक वोटबैंक को बचाने की फिराक में सूबे की राजनीति में नये-नये खेल खेल रहा है। पार्टी की अंदरूनी चाल बस यही दिख रही है, कि किसी भी तरीके से जनता को अपने तरफ खींचा जा सके, जिससे भाजपा जो जनता के हित के लिए कार्य करते हुए प्रदेश में जगह बना रही है, उसे रोका जा सके। मगर, इसमें सपा कुनबे को कामयाबी मिलेगी, ऐसी उम्मीद कम ही है, क्योंकि जनता अब ये खेल समझने लगी है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)