शहादत दिवस : ‘इंसान को मारा जा सकता है, उसके विचार को नहीं’

भगत, सुखदेव और राजगुरू ने अपने संक्षिप्त जीवन में भारतीयों में आजादी के लिए जो क्रांति की मशाल जलाई, वह उन लोगों के बाद अब किसी के लिए संभव नहीं है। असेम्बली में बम फेंकने के पश्चात भगत सिंह भाग सकते थे, लेकिन वे नहीं भागे बल्कि अंग्रेजों को ललकारते और तख्ती लहराते हुए कहा कि – ‘इंसान को मारा जा सकता है, परंतु उसके विचार को नहीं। बड़े साम्राज्य का पतन हो जाता है, लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है’।

23 मार्च को भारतवासी कैसे भुला सकता है? इसी दिन देशभक्त भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू ने भारत माता को परतंत्रता की बेड़ियो से आजाद करवाने के लिए मौत को गले लगाया था। इन तीन वीर सपूतों को अपने मौत का कोई गम नहीं था, बल्कि इनके चेहरे पर खुशी का भाव था कि उनकी शहादत ने लोगों में आजादी के प्रति जुनून पैदा कर गया। 23 मार्च कोई समान्य तिथि नहीं है, इसी दिन भारत के कोने कोने में क्रांति की लौ जल उठी थी और युवाओं ने अपने सुख-वैभव को त्यागकर आजादी के तराने गाने शुरू किया था। यह दिवस न केवल देश के प्रति सम्मान बल्कि अपने गौरवशाली इतिहास का भी भान करवाता है। इन अमर बलिदानियों के बारे में साधारण मनुष्य की वैचारिक टिप्पणी का कोई महत्व नहीं है। उनके त्याग, बलिदान और उज्जवल चरित्रों को बस याद कर आजादी के संघर्षों को महसूस किया जा सकता है।

भगत, सुखदेव और राजगुरू ने अपने संक्षिप्त जीवन में भारतीयों में आजादी के लिए जो क्रांति की मशाल जलाई, वह उन लोगों के बाद अब किसी के लिए संभव नहीं है। असेम्बली में बम फेंकने के पश्चात भगत सिंह भाग सकते थे, लेकिन वे नहीं भागे बल्कि अंग्रेजों को ललकारते और तख्ती लहराते हुए कहा कि – ‘इंसान को मारा जा सकता है, परंतु उसके विचार को नहीं। बड़े साम्राज्य का पतन हो जाता है, लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है’।

सांडर्स की हत्या का दोषी भगत, सुखदेव और राजगुरू को माना गया। 7 अक्टुबर, 1930 को फैसला सुनाया गया कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी पर लटकाया जाय। दिन तय हुआ 24 मार्च, 1931, लेकिन क्रांति का पर्याय एवं युवाओं की आवाज बन चुके क्रांतिकारियों से अंग्रेजी हुकूमत इतनी डरी हुई थी कि इन तीनों क्रांतिकारियों को एक दिन पहले यानि 23 मार्च को ही फांसी पर लटका दिया। भगत सिंह से अंग्रेजों को इतना खौफ था कि फांसी देने के बाद भी घंटो भर लटकाये रखा ताकि जीवित न बचें।

अंग्रेजों ने सोचा कि भगत सिंह को मार देने से हिन्दुस्तानी आवाम में आजादी के तराने गूंजने बंद हो जाएंगे, लेकिन उन्हें कहां पता था कि इन तीनों ने जो क्रांति की चिंगारी फूंकी थी, वह पूरे देश में शोला बन चुकी है। आजादी के पन्नों पर भले ही भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को कमतर आंका गया लेकिन आज भी युवाओं के दिल में भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी ही बसते हैं। ये लोग समान्य मनुष्य की तरह नहीं थे, बल्कि क्रांति के विचारों का जीता जागता प्रखर प्रकाशपुंज थे – एक ऐसा विचार जो अपने आप को देश के लिए समर्पित करने का भाव जगाता हो; एक ऐसा विचार जिसकी नजर में ‘राष्ट्र प्रथम’ का भाव ही सब कुछ था; एक ऐसा विचार जिसे अपने प्राणों से ज्यादा देश की आजादी प्यारी थी; एक ऐसा विचार जो देश को एकता के सूत्र में पिरो कर रख सके; एक ऐसा विचार जो युवाओं में उलगुलाल भर सके। भगत सिंह जैसे राष्ट्रभक्त बिरले में मिलते हैं।

क्रांतिकारियों के सरदार भगत सिंह

प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद भगत सिंह को 1916-17 में लाहौर के डीएवी विद्यालय में दाखिला दिलाया गया। वहां उनका संपर्क लाला लाजपतराय और अम्बा प्रसाद जैसे स्वतंत्रता सेनानियों से हुआ। 1919 में अंग्रेजों द्वारा रोलेट एक्ट लाने के विरोध में देश भर में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जालियावाला बाग हत्या कांड हुआ।

इस कांड का समाचार सुनकर भगत सिंह लाहौर से अमृतसर पहुँचे, देश की आजादी के लिए मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति उन्होंने श्रद्धाजंलि अर्पित की तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे हमेशा यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है। नृशंस हत्याकांड को देखकर उनके मन में अग्रेजों को मार गिराने संकल्प और दृढ़ हो गया।

गौरतलब कि उस समय आजादी के लिए गांधी जी सक्रिय थे, लेकिन उनके अहिंसात्मक तरीके से किये जा रहे आंदोलन, भगत सिंह को पसंद नहीं आए और उन्होंने अपने लिए क्रांति का रूख अख्तियार किया। कहा जाता है कि पिस्तौल और पुस्तक भगत सिंह के दो अनन्य मित्र थे, जेल में बंदी जीवन में जब पिस्तौल छीन ली जाती थी, तब पुस्तकें पढ़कर ही वे अपना  समय व्यतीत करते थे। जेल की काल कोठरी में रहते हुए उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखी थीं – आत्मकथा दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाजे पर), आइडियल ऑफ सोशलिज्म (समाजवाद का आदर्श), स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार आदि।

क्रांतिकारी आंदोलन की रीढ़ सुखदेव

1907 में पंजाब के शहर लायलपुर में रामलाल थापर के यहां जन्मे यह लाल बाद में महान क्रांतिकारी सुखदेव के रूप में जाने गए। कुछ कर गुजरने का जज्बा सुखदेव में बचपन से था। लायलपुर के सनातन धर्म उच्च विद्यालय  से दसवीं उत्तीर्ण करने के बाद लाहौर के नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया, जहां पर उनकी मुलाकात भगत सिंह से हुई। भगत सिंह की तरह सुखदेव को भी जालियांवाला बाग कांड ने अंदर से झकझोर दिया था। दोनों में गहरी मित्रता हो गई और दोनो आजादी के परवाने अंग्रेजों के दमन के खिलाफ योजनाएं बनाना शुरू कर दिए।

सुखदेव की क्रांतिकारी गतिविधियां इतनी बढ़ गईं कि उन्होंने सितम्बर, 1928 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला के खंडहर में क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक कर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ नाम का संगठन बना दिया, जिसका एक मात्र लक्ष्य अंग्रेजों के चंगुल से भारत को मुक्त करवाना था। जानकारों की मानें तो ‘साइमन कमीशन’ के विरोध के दौरान लाला जी के देहांत के बाद सेंट्रल एसेंबली के सभागार में जो बम और पर्चे फेंकने की घटना हुई थी, उसके असली सूत्रधार सुखदेव ही थे। सुखदेव के बारे कहा जाता है कि वे क्रांतिकारी आंदोलन की रीढ़ थे।

आजादी के परवाने राजगुरू

24 अगस्त, 1908 को पुणे जिले के खेड़ गांव में जन्म लेने वाले राजगुरु अपनी शिक्षा के लिए काशी(बनारस) चले गए, यहां पर उनका संपर्क क्रांतिकारी गणेश (बाबाराव) सावरकर से हुआ और वे क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय हो गए। क्रांतिकारी गतिविधियों में अहम भूमिका निभाते हुए उनकी मित्रता सुखदेव एवं भगत सिंह से हुई। समय के साथ उनकी मित्रता और प्रगाढ़ हो गई। भगत सिंह के साथ मिलकर उन्होंने 19 दिसंबर, 1928 को लाहौर में अंग्रेज अधिकारी सांडर्स को गोली मारी थी। राजगुरु के बारे में कहा जाता है कि वह युवा क्रांतिकारी आंदोलन की रीढ़ थे। अपने मित्र भगत सिंह एवं सुखदेव के साथ सांडर्स की हत्या के मामले में उन्हें भी फांसी की सजा सुनाई गई और 23 मार्च, 1931 को उन्होंने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को गले लगा लिया।

देश की आजादी के लिए अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले देश के तीन लाल सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ पर दर्ज वो नाम हैं, जो जन्म से नहीं, अपितु अपनी सर्वोच्च और अकथनीय देशभक्ति के कारण शहादत/बलिदान देने के लिए जाने जाते हैं। इनकी शहादत ने देश के युवाओं में स्वतंत्रता के लिए जोश एवं जज्बे की चिंगारी  को सुलगाने का काम किया।

भारत मां के  वीर सपूतों को फांसी देकर अंग्रेजी हुकूमत समझती थी कि भारतीय जनमानस में भय का माहौल बनेगा और वो आजादी की भावना को भूलकर विद्रोह नहीं करेगा। लेकिन, ऐसा न होकर आजादी के लिए क्रांति की ज्वाला और भड़क उठी। भारत की जनता पर आजादी का ऐसा भूत सवार हुआ कि अपना सर्वस्व न्यौछावर कर मौत का कफन बांधकर लोगों ने अग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी। भारत के महान सपूतों ने आजादी के लक्ष्य की प्राप्ति के लिये वीरगति प्राप्त की। आजादी के परवाने भगत, सुखदेव और राजगुरु जैसे हजारों सपूतों के योगदान को देश कभी नहीं भूलेगा। देशभक्ति की अनूठी मिसाल देने वाले इन क्रांतिकारियों के प्रति यह राष्ट्र हमेशा कृतज्ञ रहेगा।

(लेखक राष्ट्रीय छात्रशक्ति पत्रिका के सहायक संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)