भ्रामक ‘तस्वीरों’ के जरिये भीड़ बढ़ाकर भाजपा को भगाने निकले हैं, लालू यादव !

देखा जाये तो आज भी लालू प्रसाद यादव की राजद और दूसरे विपक्षी दलों की धारणा है कि रैली में जितनी संख्या में लोग आयेंगे, उससे उनके जनाधार की मजबूती का पता चलेगा, जबकि हकीकत है ठीक इसके विपरीत। रैलियों में मौजूद भीड़ के आधार पर कतई किसी की शक्ति का आकलन नहीं किया जा सकता है, लेकिन राजद एवं विपक्षी दल आज भी पुराने ढर्रे पर राजनीति कर रही हैं। इसी वजह से लालू प्रसाद यादव रैली में भीड़ को ज्यादा बताने के लिये झूठ और भ्रामक तस्वीरों का सहारा लेने के लिये मजबूर हो जाते हैं।

27 अगस्त, 2017 को राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की अगुआई में पटना के प्रसिद्ध गाँधी मैदान में ‘भाजपा भगाओ, देश बचाओ’ रैली आयोजित की गई, जिसमें जदयू के बागी नेता शरद यादव, कांग्रेस, तृणमूल, समाजवादी पार्टी, भाकपा, राकांपा समेत कई अन्य दलों के नेता शामिल हुए। रैली का मकसद था नीतीश कुमार और भाजपा पर निशाना साधना।

लालू खेमे द्वारा इस रैली को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर और सफल बताया जा रहा है, लेकिन वास्तव में इस रैली को नकारात्मक राजनीति का हिस्सा माना जा सकता है, क्योंकि यह रैली ऐसे समय में की गई, जब बिहार बाढ़ से जूझ रहा है। सरकार द्वारा बाढ़ की आपदा से बिहार को निकालने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं, मगर विपक्ष द्वारा ऐसे कठिन समय में भी राजनीति करना शर्मनाक है।

इस आपदा से प्रभावित लोगों के लिये परेशानी वाली बात यह है कि जैसे ही उन्हें बाढ़ से राहत मिलेगी ठीक वैसे ही महामारी उनको अपना शिकार बना लेगी। ऐसे में सवाल का उठना लाजिमी है कि क्या राजद द्वारा रैली करने का यह समय सही था। एक तरफ लोग बाढ़ से मर रहे हैं तो दूसरी तरफ राजद और दूसरे विपक्षी दल रैली करने में व्यस्त हैं। इसके अलावा रैली में जुटी भीड़ को लेकर भी लालू यादव द्वारा गलत तस्वीरों के माध्यम से भ्रामक प्रचार करने के कारण इस रैली की भरपूर किरकिरी भी हुई।  

लालू यादव, राबड़ी देवी और उनके बेटे

देखा जाये तो लालू प्रसाद यादव की राजनीति का आधार कभी भी विकास नहीं रहा है। उनका  सरोकार जनता की जगह परिवार रहा है। लालू प्रसाद एक ऐसे नेता हैं जिन्होंने अपने परिवार के सभी लोगों को राजनीति का प्रसाद दिया। पत्नी को तो उन्होंने मुख्यमंत्री ही बनवा दिया। साले, बेटे एवं बेटी सभी को अहम पदों पर बैठाने में अहम भूमिका निभाई। क्या यही है लालू प्रसाद यादव की समाजवादी राजनीति ? दूसरी तरफ मुख्यमंत्री बनने से पहले लालू प्रसाद यादव एवं उनके परिवार के पास कितनी संपत्ति थी और आज कितनी है, यह भी किसी को बताने की जरूरत नहीं है।

ऐसा प्रतीत होता है कि राजद के साथ-साथ दूसरी विपक्षी पार्टियां भी इस मुद्दे पर संवेदनशील नहीं हैं। शरद यादव बिहार के मधेपुरा से चार बार सांसद रहे हैं। क्या उनका यह कर्तव्य नहीं था कि वे अपने निर्वाचन क्षेत्र के बाढ़ग्रस्त इलाकों का दौरा करके प्रभावित लोगों को राहत पहुंचाना सुनिश्चित करते। दूसरी विपक्षी पार्टियों को भी चाहिये था कि वे तकलीफ में लोगों की मदद करते, लेकिन इस प्रतिकूल स्थिति में भी वे अपनी राजनीति चमकाने में व्यस्त हैं।

लगता है कि इन विपक्षी नेताओं का जनता से जुड़ाव खत्म हो गया है और इसी वजह से इन पार्टियों का दायरा धीरे-धीरे सिमट रहा है। आज भीड़तंत्र के नाम पर चुनाव जीतने की कल्पना और जुगत लगाई जाने लगी है। राजनीति का ऐसा बदला रूप ठीक नहीं है। जिस तरह से जनता के मिजाज बदल रहे हैं, उससे लगता है कि जनता कभी भी किसी को भी सबक सिखा सकती है। आज की तारीख में उसकी उपेक्षा करना किसी को भी भारी पड़ सकता है। इसलिए बदलते परिवेश में नेताओं को मंथन करने की जरूरत है।    

लालू द्वारा इस भ्रामक तस्वीर को ट्विट कर रैली में बम्पर भीड़ बताई गयी थी

देखा जाये तो आज भी लालू प्रसाद यादव और दूसरे विपक्षी दलों की धारणा है कि रैली में जितनी संख्या में लोग आयेंगे, उससे उनके जनाधार की मजबूती का पता चलेगा, जबकि हकीकत है ठीक इसके विपरीत। रैलियों में मौजूद भीड़ के आधार पर कतई किसी की शक्ति का आकलन नहीं किया जा सकता है, लेकिन राजद एवं विपक्षी दल आज भी पुराने ढर्रे पर राजनीति कर रही हैं। इसी वजह से लालू प्रसाद यादव रैली में भीड़ को ज्यादा बताने के लिये झूठ का सहारा लेने के लिये मजबूर हो जाते हैं।

मौजूदा समय में रैलियों में भीड़ जुटाने के लिये सुनियोजित तरीके से काम किया जाता है। रैली की सफलता को सुनिश्चित करने के लिये इवेंट प्रबंधकों की मदद ली जाती है। प्रशांत किशोर वर्तमान में सबसे सफल इवेंट प्रबंधक माने जाते हैं। भीड़ जुटाने के लिये धनबल, बाहुबल, नाच-गाने, मांसाहारी व शाकाहारी भोजन एवं शराब की व्यवस्था, स्वजातीय होने की दुहाई आदि हथकंडों का सहारा लिया जा रहा है।

रैलियों को सफल बनाने के लिये गाँव, कस्बों एवं शहरों से गाड़ियों पर लोगों को लाद-लादकर रैली स्थल तक लाया जा रहा है, जबकि लगभग 30 से 40 साल पहले का माहौल आज के माहौल से अलग था। अगर किसी दल की रैली में भीड़ जुटती थी तो उसके जीतने की संभावना प्रबल मानी जाती थी। इसका एक प्रमुख कारण नेताओं की छवि या लोकप्रियता का बेहतर होना था। उस कालखंड में केवल नेता का नाम सुनकर ही रैली में भीड़ खिंची हुई चली आती थी।

कहा जा सकता है कि बदले माहौल में राजद प्रमुख को अपनी गलतियों से सबक लेते हुए अपनी राजनीति जनता की भलाई के लिये करनी चाहिये। राजनीति का मतलब परिवार का भला करना कदापि नहीं है। इसके बरक्स दूसरे विपक्षी दलों को भी अपनी राजनीति की दशा एवं दिशा बदलनी होगी। संवेदनहीन होने एवं नकारात्मक राजनीति करने से उनकी राजनीति का दायरा संकुचित होगा। अब जनता जागरूक हो रही है। उसे बेवकूफ बनाना आसान नहीं है। बदले परिवेश में बिहार का विकास करने पर ही नेता एवं राजनीतिक दल बिहार में राजनीति कर सकेंगे।

(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के कॉर्पोरेट केंद्र मुंबई में मुख्य प्रबंधक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)