भारतीय परंपरा में धर्म और विज्ञान के बीच विरोध नहीं, एकात्म भाव की प्रतिष्ठा है

सत्य तो यह है कि पश्चिम में एक समय धर्म और विज्ञान के बीच विरोध का भाव रहा है, जब कैथोलिक चर्च द्वारा नवीन सिद्धांतों के प्रतिपादन पर अनेक विज्ञानियों को धर्म-विरोधी करार देते हुए अमानवीय यातनाएं दी गई हैं। सूर्यकेंद्री सिद्धांत के लिए गैलेलियो पर चर्च द्वारा किए गए अत्याचारों का इतिहास सर्वविदित है। लेकिन भारतीय परंपरा में तो इस तरह की बात कहीं नहीं मिलती जब किसी नवीन वैज्ञानिक सिद्धांत के प्रतिपादन पर किसी को धर्म-विरोधी ठहरा दिया गया हो।

गत 23 अगस्त को अंतरिक्ष क्षेत्र में इतिहास रचते हुए भारत का चंद्रयान-3 चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की सतह पर सफलतापूर्वक उतर गया। इसीके साथ भारत चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सफल अभियान भेजने वाला विश्व का पहला देश बन गया है। इस उपलब्धि के बाद देश में स्वाभाविक ही उत्सव का वातावरण बन गया। लेकिन इस उत्सवधर्मिता के बीच ही एक आयातित विचारधारा से प्रभावित कतिपय ऐसे विचार भी देखने को मिले, जिनका आशय यह था कि ये उपलब्धि धर्म पर विज्ञान की श्रेष्ठता को सिद्ध करती है। यह कहा गया कि देश की प्रगति के लिए धार्मिक कर्मकांड नहीं, वैज्ञानिक चेतना आवश्यक है।

वस्तुतः इन सब बातों के जरिये खास वैचारिक समूह द्वारा धर्म को विज्ञान का विरोधी सिद्ध करने की कुचेष्टा ही की गई। इसमें नया कुछ नहीं है। यह खास वैचारिक समूह सदैव इस ताक में रहता ही है कि कहीं से कोई अवसर मिले जिससे भारतीय धर्म और संस्कृति को नीचा दिखाया जा सके। लेकिन इस प्रसंग में इन लोगों द्वारा जिस प्रकार की अवधारणा प्रस्तुत की जा रही, उसका कोई सिर-पैर नहीं है।

सत्य तो यह है कि पश्चिम में एक समय धर्म और विज्ञान के बीच विरोध का भाव रहा है, जब कैथोलिक चर्च द्वारा नवीन सिद्धांतों के प्रतिपादन पर अनेक विज्ञानियों को धर्म-विरोधी करार देते हुए अमानवीय यातनाएं दी गई हैं। सूर्यकेंद्री सिद्धांत के लिए गैलेलियो पर चर्च द्वारा किए गए अत्याचारों का इतिहास सर्वविदित है। लेकिन भारतीय परंपरा में तो इस तरह की बात कहीं नहीं मिलती जब किसी नवीन वैज्ञानिक सिद्धांत के प्रतिपादन पर किसी को धर्म-विरोधी ठहरा दिया गया हो।

हमारे यहाँ तो धर्म के विधि-विधानों में ही वैज्ञानिक दृष्टि के दर्शन हो जाते हैं। सूर्यकेंद्री सिद्धांत से पूर्व जब पूरा विश्व पृथ्वी को केंद्र में रखकर सूर्य से उसकी परिक्रमा करवा रहा था, उससे हजारों वर्ष पूर्व से ही हम नवग्रह पूजन में सूर्य को केंद्र में रखकर पूजते आ रहे हैं। जब विश्व समुदाय पृथ्वी के आकार-प्रकार को लेकर अज्ञान में था, उससे बहुत पूर्व में ही हम अपने पौराणिक पुरुष वाराह देव की मूर्ति में उनके नथुनों पर गोल पृथ्वी दर्शा चुके थे। योग जैसे अनुपम आरोग्य-विधान, जिसका महत्व आज समस्त विश्व स्वीकार रहा है, का स्रोत हमारा धर्म ही है। ऐसे और बहुत-से उदाहरण दिए जा सकते हैं, जो सनातन धर्म की वैज्ञानिक चेतना को सिद्ध करते हैं। 

अधिक क्या कहें, आज इसरो प्रमुख सोमनाथ यदि अपने वक्तव्य में कहते हैं कि अलजेबरा, स्कवायर रूट, समय के सिद्धांत, आर्किटेक्चर, मेटालर्जी तथा अंतरिक्ष विज्ञान आदि के सिद्धांत वेदों से निकले हैं, तो इससे ही सिद्ध हो जाता है कि भारत में धर्म और विज्ञान के बीच कोई विरोध नहीं है। इन दोनों क्षेत्रों में यात्रा के मार्ग भिन्न हो सकते हैं, लक्ष्य का विस्तार भिन्न-भिन्न हो सकता है, परंतु उद्देश्य एक ही है – सत्य तक पहुँचना।

यही कारण है कि हमारे यहाँ चंद्रमा को देवता मानने वाला धर्म, उसी चंद्रमा के अन्वेषण के लिए भेजे जा रहे चंद्रयान की सफलता हेतु यज्ञ-हवन और प्रार्थना करने लगता है, तो वहीं चंद्रयान को बनाने में जी-जान झोंकने के बाद इसरो वैज्ञानिकों का दल उसकी सफलता हेतु मंदिर में प्रार्थना करने पहुँच जाता है। ऐसे देश में धर्म और विज्ञान के बीच विरोध की बात करना धूर्तता का ही परिचायक है। 

कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि विदेशों में धर्म और विज्ञान के बीच संबंधों की चाहें जैसी स्थिति रही हो, भारतीय परंपरा में तो इन दोनों के बीच सदैव एकात्म का भाव ही रहा है। जिस प्रकार विज्ञान में कोई अंतिम सत्य नहीं होता, उसी प्रकार भारतीय धार्मिक दृष्टि भी सत्य के सतत अन्वेषण की समर्थक रही है। हमारे धर्मग्रंथ तो ईश्वर के विषय में भी ‘नेति-नेति’ की बात करते हुए सतत अनुसंधान वृत्ति को बल देते हैं।

अतः आयातित विचारधारा से ग्रस्त होकर, पाश्चात्य दृष्टिकोण से भारत में धर्म और विज्ञान के बीच विरोध का खोखला विमर्श खड़ा करने वाले वैचारिक समूह केवल अपने एजेण्डा आधारित अज्ञान का ही प्रदर्शन कर रहे हैं, जिसका कोई अर्थ नहीं है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)