सूर्यास्त की ओर बढ़ती वामपंथी राजनीति

वामपंथी पार्टियों में जबर्दस्‍त मुस्‍लिमपरस्‍ती पाई जाती है। केरल और पश्‍चिम बंगाल में इन्‍होंने मुस्‍लिम वोट बैंक बनाया और उसके सहारे सत्‍ता हासिल की। केरल में आजादी के बाद नई कट्टरवादी आल इंडिया मुस्‍लिम लीग के साथ गठबंधन सरकार बनाया। इन्‍होंने मालाबार में नया मुस्‍लिम बहुसंख्‍यक जिला बनाने के लिए आल इंडिया मुस्‍लिम लीग के साथ मिलकर काम किया और इसका नाम मल्‍लपुरम रखा। पश्‍चिम बंगाल में राष्‍ट्रीय हितों की कीमत पर बांग्‍लादेश से मुस्‍लिम घुसपैठ पर न केवल चुप्‍पी साधे रखी, बल्‍कि राज्‍य में उन्‍हें बसाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका भी निभाई।

हर मुद्दे पर सिद्धांतवादी राजनीति का ढिंढोरा पीटने वाली वामपंथी राजनीति की असलियत उजागर करने वाले उदाहरणों की कमी नहीं है। ताजा मामला केरल की भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (सीपीआई) नेता एमएस गीता गोपी की बेटी की शादी का है, जिसमें सोने के गहनों से लदी उनकी बेटी की तस्‍वीर चर्चा का विषय बनी। क्‍या इतनी वैभवपूर्ण शादी सिद्धांतवादी राजनीति करने वाली पार्टी का कोई नेता बिना भ्रष्‍टाचार किए कर लेगा?

सबसे बड़ी बात यह है कि एमएस गीता गोपी की ही पार्टी के नेता और केरल के कृषि मंत्री मुल्‍लाकर रत्‍नाकरण ने महज दो महीने पहले राज्‍य विधानसभा में दिखावटी शादियों का मुद्दा उठाया था, जिसमें मांग की गई थी कि पिनराई विजयन सरकार दिखावटी शादियों को रोकने के लिए एक नया कानून लाए। लेकिन अब खुद उन्‍हीं की पार्टी की विधायक एमएस गीता गोपी की बेटी की शादी की तस्‍वीर आने के बाद पार्टी के नेता अपना मुंह छिपा रहे हैं।

सीपीआई नेता एमएस गीता गोपी की बेटी की शादी की तस्वीर

देखा जाए तो देश की वामपंथी राजनीति की कथनी-करनी में जमीन-आसमान का अंतर रहा है। इसका सबसे सशक्‍त उदाहरण है 34 साल तक लगातार वाममोर्चा  शासन में रहे पश्‍चिम बंगाल की गरीबी। यदि वाम राजनीति जनसरोकार का ध्‍यान रखती तो यह स्‍थिति कभी नहीं आती, लेकिन वामपंथियों ने बात तो जनसरोकारों की लेकिन अपनी नीतियों में आम जनता को दरकिनार किया।

जनता से दूर जाने का ही नतीजा है कि कभी देश की राजनीतिकी मुख्‍यधारा में शामिल रही वामपंथी पार्टियां अब तेजी से हाशिए पर जा रही हैं। आज की तारीख में केरल और पूर्वोत्‍तर भारत के छोटे से प्रांत त्रिपुरा को छोड़ दें तो कहीं वामपंथी पार्टियां सत्‍ता में नहीं हैं। पश्‍चिम बंगाल में तो इन्‍होंने सत्‍ता के लिए अपने धुर विरोधी कांग्रेस से गठबंधन तक कर लिया जिसे जनता ने सिरे से नकार दिया। इनके सिद्धांत का खोखलापन इससे उजागर होता है कि जिस कांग्रेस के साथ इन्‍होंने पश्‍चिम बंगाल में गठबंधन किया केरल में उसी कांग्रेस के विरोध में चुनाव लड़ा।

सत्‍ता के लिए ऐसे बेमेल गठबंधन वाम राजनीति के लिए कोई नई बात नहीं है। अपनी छुद्र स्‍वार्थी राजनीति के लिए वाममोर्चे ने न केवल अपने सिद्धांतों से समझौता किया बल्‍कि देश विरोधी कार्यों से भी गुरेज नहीं किया। देश की आजादी के लिए चले स्‍वाधीनता आंदोलन के दौरान वामपंथियों ने अंग्रेजों का साथ दिया। उन्‍होंने ब्रिटिश शासन से मांग की कि भारत को कई छोटे-छोटे डोमिनियम स्‍टेट में बांट दिया जाए। जब उनकी यह मुहिम कामयाब नही हुई तब उन्‍होंने जिन्‍ना के द्विराष्‍ट्रवाद का समर्थन किया और पाकिस्‍तान बनवाने में बड़ी भूमिका निभाई।

साभार : गूगल

इतना ही नहीं, आजाद भारत में सरदार पटेल के एकीकरण की योजना का भी इन्‍होंने जमकर विरोध किया। 1948 में वामपंथियों ने हैदराबाद के निजाम के साथ हाथ मिलाकर आजाद भारत के खिलाफ सशस्‍त्र विद्रोह किया। इन्‍होंने तेलंगाना इलाके में एक सर्वहारा क्रांति के नाम पर 1948 से 1953 तक लगभग 2 लाख गरीब और निर्दोष किसानों को मरवा डाला था।

वामपंथियों ने तिब्‍बत पर चीनी कब्‍जे और 1962 में भारत पर चीनी आक्रमण का खुलकर समर्थन किया। 1962 के युद्ध के समय इन्‍होंने “बीजिंग नजदीक, दिल्‍ली दूर” का नारा लगाते हुए कहा कि अभी तक यह स्‍पष्‍ट नहीं है कि हमला चीन ने ही किया है। 1975 में जब इंदिरा गांधी आपातकाल के बहाने लोकतंत्र को कुचल रही थीं, तब इन वामपंथियों ने उनका समर्थन किया।

वामपंथी पार्टियों में जबर्दस्‍त मुस्‍लिमपरस्‍ती पाई जाती है। केरल और पश्‍चिम बंगाल में इन्‍होंने मुस्‍लिम वोट बैंक बनाया और उसके सहारे सत्‍ता हासिल की। केरल में आजादी के बाद नई कट्टरवादी आल इंडिया मुस्‍लिम लीग के साथ गठबंधन सरकार बनाया। इन्‍होंने मालाबार में नया मुस्‍लिम बहुसंख्‍यक जिला बनाने के लिए आल इंडिया मुस्‍लिम लीग के साथ मिलकर काम किया और इसका नाम मल्‍लपुरम रखा। पश्‍चिम बंगाल में राष्‍ट्रीय हितों की कीमत पर बांग्‍लादेश से मुस्‍लिम घुसपैठ पर न केवल चुप्‍पी साधे रखी, बल्‍कि राज्‍य में उन्‍हें बसाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका भी निभाई।

राजनीति से भले ही वामपथियों की विदाई नजदीक है, लेकिन वामपंथी बुद्धिजीवियों की एक बड़ी जमात अभी देश में मौजूद है। रोमिला थापर से लेकर कन्‍हैया कुमार जैसे लोगों की एक लंबी-चौड़ी फौज मीडिया से लेकर विश्‍वविद्यालयों तक में छाई हुई है। देश के लिए सौभाग्‍य की बात है कि नरेंद्र मोदी के शासन काल में इनकी सच्‍चाई उजागर हो रही है। वह दिन दूर नहीं जब मीडिया से लेकर शैक्षणिक संस्‍थाओं से भी इनपकी विदाई हो जाएगी।

(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)