ख़त्म हो रहा जनाधार, पतन की ओर बढ़ते वामपंथी दल

यदि वाम दलों के पतन का गहराई से अध्ययन करें तो स्पष्ट होता है कि इन दलों का नेतृत्व जन भावनाओं से बिल्कुल हटकर सोच रहा है। इसका एक उदाहरण लीजिए। पिछले दिनों सरकार ने कहा कि भारतीय सेना ने पाकिस्तान में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक किया और वहां आतंकियों के ठिकानों को नष्ट किया। सारा देश सरकार और सेना के साथ खड़ा दिखा। लेकिन, वामदल सरकार से मांग करते रहे कि वो सर्जिकल स्ट्राइक के प्रमाण दे। आम आदमी पार्टी तथा कांग्रेस भी सरकार से प्रमाण मांग रही थी। इन सबका उत्तर प्रदेश से लेकर गोवा और मणिपुर में क्या हश्र हुआ, यह अब सबको पता है। ऐसे ही, नक्सलियों के समर्थन से लेकर कश्मीर जैसे मसलों पर तक वामपंथी दलों के विचार जनभावनाओं और राष्ट्रीय हितों से सदैव अलग रहे हैं। इनके पतन का यह प्रमुख कारण है।

लेफ्ट पार्टियां देश की राजनीति में अप्रासंगिक होती जा रही हैं। इनकी नीतियों, कार्यक्रमों और विचारों को जनता स्वीकार नहीं कर रही है। इसलिए ही  भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) लोक सभा से लेकर विधानसभा चुनावों तक में धराशायी होती जा रही हैं।  

हालिया उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पहली बार भाकपा, माकपा और भाकपा( माले) ने विधानसभा चुनावों के लिए साझा प्रत्याशी उतारे। उन्होंने सौ सीटों पर कम से कम प्रति सीट 10 से 15 हजार वोट हासिल करने का लक्ष्य रखा। यही नहीं, इनके बेहतर प्रदर्शन करने के लिए वामदलों से सीताराम येचुरी, डी.राजा, वृंदा करात, दीपांकर भट्टाचार्य जैसे करीब 70 दिग्गज नेताओं ने प्रचार किया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। आंकड़े बताते हैं कि करोड़ों की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में वामदल कुल मिलाकर 1 लाख 38 हजार 763 वोट ही हासिल कर सके। यह कुल मतों को .2 प्रतिशत होता है। वहीं नोटा के लिए प्रदेश की जनता ने 7 लाख 57 हजार 643 वोट दिए, यह करीब .9 फीसदी बैठता है।

आपको याद होगा कि दोनों लेफ्ट पार्टियों, माकपा तथा भाकपा, ने साल 1991 के लोकसभा के चुनावों में 9 राज्यों में विजय दर्ज की थी। अब ये पश्चिम बंगाल, केरल तथा त्रिपुरा में ही सिकुड़ कर रह गई हैं। सबसे अधिक चिंता का विषय यह है कि इनसे नौजवान नहीं जुड़ रहे हैं। माकपा के कुल सदस्यों में मात्र 6.5 फीसद ही 25 साल से कम उम्र के हैं। माकपा का नेतृत्व तो बुजुर्गों से भरा है। नेतृत्व में नौजवान नाम मात्र के ही हैं।

माकपा की एक ताजा  रिपोर्ट में बताया गया है कि उसकी विशाखापट्नम में 2015 में हुई कांग्रेस में 727 नुमांइदों ने भाग लिया। उनमें सिर्फ दो ही 35 साल से कम उम्र के थे। और 30-40 उम्र के प्रतिनिधयों में सिर्फ 28 ही 35 साल की उम्र के थे। यानी माकपा से नौजवानों का मोहभंग होता जा रहा है। अब माकपा और पश्चिम बंगाल की बात कर लीजिए। इधर माकपा ने 1977 से लेकर 2011 तक राज किया। ज्योति बसु लंबे समय तक माकपा के नेतृत्व वाली सरकार के मुख्यमंत्री थे। लेकिन, अब इधर भी माकपा लोकसभा और राज्य सभा के चुनाव बार-बार हार रही है।

साभार: आज तक

अगर बात फिर उत्तर प्रदेश की हो, तो पश्चिम उत्तर प्रदेश से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक वामदल चंद वोटों को ही जुटाने में तरस गए। अयोध्या की बात करें तो यहां भाकपा के सूर्यकांत पांडेय काफी कोशिश के बाद भी महज 1353 लोगों का ही वोट हासिल कर सके। दंगे की आग से झुलसे मुजफ्फरनगर में माकपा  के मुर्तजा सलमानी को कुल मिलाकर 491 वोट ही मिले। आजमगढ़ में भी यही हाल रहा।

यहां माकपा के राम बृक्ष की 1040 वोट के साथ जमानत जब्त हुई, जबकि गाजियाबाद के साहिबाबाद में इसी पार्टी के जगदंबा प्रसाद 1087 वोट के साथ जमानत नहीं बचा सके। इन सभी जगहों पर वाम दलों का बीते समय में तगड़ा असर रहा है। यानी उत्तर प्रदेश से लेफ्ट पार्टियां का सूपड़ा साफ हो चुका है। 2007, 2012 के बाद अब 2017 में वह एक सीट जीतने को तरस गए।

यदि वाम दलों के पतन का गहराई से अध्ययन करें तो स्पष्ट होता है कि इन दलों का नेतृत्व जन भावनाओं से बिल्कुल हटकर सोच रहा है। इसका एक उदाहरण लीजिए। पिछले दिनों सरकार ने कहा कि भारतीय सेना ने पाकिस्तान में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक किया और वहां आतंकियों के ठिकानों को नष्ट किया। सारा देश सरकार और सेना के साथ खड़ा दिखा। लेकिन, वामदल सरकार से मांग करते रहे कि वो सर्जिकल स्ट्राइक के प्रमाण दे। आम आदमी पार्टी तथा कांग्रेस भी सरकार से प्रमाण मांग रही थी। इन सबका उत्तर प्रदेश से लेकर गोवा और मणिपुर में क्या हश्र हुआ, यह अब सबको पता है। ऐसे ही, नक्सलियों के समर्थन से लेकर कश्मीर जैसे मसलों पर तक वामपंथी दलों के विचार जनभावनाओं और राष्ट्रीय हितों से सदैव अलग रहे हैं। इनके पतन का यह प्रमुख कारण है।

दरअसल सारा देश राष्ट्र की एकता और अखंडता के सवालों पर एक है। पर वामदलों का तो नज़रिया ही दूसरा रहता है। इनके येचुरी तथा करात सरीखे नेता सिर्फ कैंडिल मार्च निकाल सकते हैं। इसलिए अब इन्हें जनता खारिज करती जा रही है। संगठन के स्तर पर भी कोई काम नहीं किया गया, ज्यादातर वाम दलों का रुझान पश्चिम बंगाल और केरल की तरफ ही सिमट गया।

हालांकि कभी वामपंथ के गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में भी अब इनकी दूकान बंद होती जा रही है। वहां 2011 के विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों को  41.0 फीसद मत मिले थे। यह आंकड़ा 2014 के लोकसभा चुनाव में 29.6 फीसद रह गया। फिर आया 2016 का बंगाल विधानसभा चुनाव। तब लेफ्ट पार्टियों को मिले 26.1 फीसद वोट। यानी गिरावट लगातार है। स्पष्ट है कि प्रायः जन-भावनाओं से दूर और राष्ट्रीय विचारों से अलग खड़ी नज़र आने वाले  वाम दलों को देश की जनता ने खारिज करती जा रही है। देश में अब इनका कोई ठोस जनाधार नहीं बचा है। हालत यही रही तो जल्द ही वामपंथ इस देश में इतिहास की बात हो जाएगा।

(लेखक युएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं।  ये उनके निजी विचार हैं।)