मनमोहन सिंह पर प्रधानमंत्री मोदी के तंज़ से इतना बौखलाई क्यों है कांग्रेस ?

शब्दों के अर्थ को अनर्थ के फ्रेम में फिटकर किस तरह वितंडा खड़ा किया जाता है, यह कोई कांग्रेस से सीखे। संभवतः कांग्रेस खुद को भाषा की शुचिता और संसदीय मर्यादा का एकमात्र व्याकरणाचार्य और पैमाना समझ ली है, अन्यथा वह संसदीय विमर्श के शब्दों पर खुद को उपहास का पात्र नहीं बनाती। आश्चर्य है कि जब उसके सदस्य, संसद और सड़क पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हिटलर, मुसोलिनी और भस्मासुर जैसे आपत्तिजनक शब्दों से नवाजते हैं, तो उसे संसदीय मर्यादा और भाषा की शुचिता का ख्याल नहीं रहता और जब प्रधानमंत्री या सत्ता पक्ष की ओर से विपक्ष पर तंज-व्यंग कसा जाता है, तो वह तिलमिला जाती है। आखिर क्यों ? क्या विपक्ष और सत्ता पक्ष के लिए संसद की मर्यादा और भाषा की शुचिता का पैमाना अलग-अलग है ? अगर नहीं तो फिर कांग्रेस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव में दिए गए भाषण से इतनी उत्तेजित क्यों है ? अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुए घपले-घोटाले का जिक्र में कह दिया कि ‘बाथरुम में रेनकोट पहन कर नहाना डॉक्टर मनमोहन सिंह ही जानते हैं’ तो यह कौन-सा बड़ा गुनाह हो गया और किस तरह से डॉ मनमोहन सिंह की प्रतिष्ठा पर आंच आ गया। प्रधानमंत्री मोदी ने तो सिर्फ यही कहा कि इतने घपले-घोटाले के बावजूद भी डॉ मनमोहन सिंह बेदाग रहे। भला इससे कांग्रेस को क्या आपत्ति है ? फिर भी उसे लग रहा है कि उसके नेतृत्ववाली यूपीए सरकार के दौरान हुए भ्रष्टाचार के मामले में उसके प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की भी संलिप्तता रही है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परोक्ष रुप से उसी पर तंज कसा है, तो इसके लिए कांग्रेस जिम्मेदार है। भला यह कैसे संभव है कि कोई सरकार घपले-घोटाले और भ्रष्टाचार करे और उस पर वार भी न हो। फिर भी इस तंज को संसद की मर्यादा और भाषा की शुचिता से जोड़कर देखा जाता है, तो यह मौके की राजनीति भर है।

संसद में नोटबंदी के मसले पर बहस के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर वार करते हुए कहा था कि नोटबंदी संगठित और कानूनी लूट-खसोट तथा डाका है। डॉ मनमोहन सिंह की यह भाषा किस तरह संसद की मर्यादा के अनुकूल है ? अगर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भाषा संसदीय मर्यादा के अनुकूल हो सकती है, तो फिर मौजूदा  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का व्यंग्य क्यों नहीं ?

संसद की मर्यादा की पाठ पढ़ाने वाली कांग्रेस को मल्लिकार्जुन खड़गे के उस बयान को याद रखना चाहिए जब उन्होंने कहा कि देश की आजादी में भाजपा का कुत्ता भी काम नहीं आया। कांग्रेस को यह भी याद रखना होगा कि संसद में नोटबंदी के मसले पर बहस के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर वार करते हुए कहा था कि नोटबंदी संगठित और कानूनी लूट-खसोट तथा डाका है।  डॉ मनमोहन सिंह की यह भाषा किस तरह संसद की मर्यादा के अनुकूल है ? अगर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भाषा संसदीय मर्यादा के अनुकूल हो सकती तो फिर मौजुदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का व्यंग्य क्यों नहीं ? प्रधानमंत्री मोदी ने तो यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार का ही जिक्र किया है, डॉ राममनोहर लोहिया तो नेहरु सरकार की फिजूलखर्ची पर ही बरस पड़े थे। उन्होंने कहा था कि हमारे देश में 27 करोड़ आदमी तीन आने रोज के खर्च पर जिंदगी निर्वाह करते हैं, जबकि प्रधानमंत्री (नेहरु) के कुत्ते पर तीन रुपया रोजाना खर्च होता है। रही बात भाषा की शुचिता और संसद की मर्यादा की तो संसद में और उसके बाहर कांग्रेस ने इसका जितना उलंघन किया है, उतना किसी ने नहीं।

याद होगा, लोकसभा चुनाव के दौरान तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण मंत्री जयराम रमेश ने नरेंद्र मोदी को हिटलर कहा था। गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के विचारवान नेता कहे जाने वाले मणिशंकर अय्यर ने मोदी पर तंज कसते हुए गुजरात के लोगों से अपील किया था कि वे दीपावली पर रावण को हराए। उन्होंने यह भी कहा कि मोदी लौहपुरुष नहीं लहूपुरुष हैं। मणिशंकर अय्यर सांसदों की तुलना जानवर से भी कर चुके हैं। गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष अर्जुन मोडवाडिया ने सारी हदें पार करते हुए नरेंद्र मोदी को बंदर कहा और कुछ इसी तरह की बदजुबानी कांग्रेस नेत्री रेणुका चौधरी द्वारा भी प्रदर्शित की गयी। स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कह चुकी हैं। अभी गत माह पहले ही पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में भारतीय सेना द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी बड़ी बेअदबी से प्रधानमंत्री पर सैनिकों की खून की दलाली का आरोप लगाते सुने गए। लोकसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी के महासचिव नरेश अग्रवाल ने नरेंद्र मोदी पर तंज कसते हुए कहा था कि एक चाय बेचने वाले का नजरिया राष्ट्रीय स्तर का नहीं हो सकता इसलिए वह देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। आखिर यह किस तरह की भाषा की शुचिता है ?

रही बात घपले-घोटाले की तो डा मनमोहन सिंह की सरकार आजाद भारत की सबसे भ्रष्टतम सरकारों में शुमार है। क्या यह सच नहीं है कि डॉ मनमोहन सिंह के नाक के नीचे ही ठगों की टोली देश की संपदा लूटती रही और वे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे ? क्या यह सच नहीं है कि उनकी सरकार भ्रष्टाचारियों के प्रति तब तक नरम बनी रही जब तक कि न्यायालय द्वारा दखल नहीं दिया गया ? क्या यह सच नहीं है कि 2004 से 2009 के बीच जब कोयला ब्लॉकों का आवंटन हुआ तब कोयला मंत्रालय का प्रभार प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के हाथ में था ? क्या पूर्व कोयला सचिव पीसी पारख के बयान से उद्घाटित नहीं हो चुका है कि कोयला खदानों के आवंटन में हुई अनियमितता के लिए मनमोहन सिंह भी जिम्मेदार थे ? क्या यह सच नहीं है कि कोयला आवंटन घोटाले मामले में स्टेट्स रिपोर्ट को बदला गया ? क्या इन तथ्यों से स्पष्ट नहीं हो जाता है कि एक केंद्रीय सत्ता खुद के भ्रष्टाचार की जांच में लीपापोती करने के प्रयास में रंगे हाथ पकड़ी गयी और न्यायालय से लताड़ खायी ? क्या यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार का खुलासा करते हुए विकिलीक्स ने दावा नहीं किया कि 2008 में परमाणु करार के मसले पर वाम दलों द्वारा यूपीए सरकार से समर्थन लिए जाने के बाद विश्वासमत के दौरान सरकार को बचाने के लिए सांसदों को रिश्वत दी गयी और इसकी सूचना अमेरिकी सरकार को वाशिंगटन तक भेजी गयी ? क्या विकिलीक्स वेबसाइट ने दावा नहीं किया कि कांग्रेसी सांसद सतीश शर्मा के सहयोगी नचिकेता कपूर ने अमेरिकी दूतावास के एक कर्मचारी को नोटों से भरे दो बक्से दिखाए थे और कहा कि भारत अमेरिकी परमाणु सौदे को लेकर सरकार के विश्वासमत हासिल करने के लिए 50-60 करोड़ रुपए तैयार रखे हैं?

आज भी देश जानना चाहता है कि वे कौन से कारण रहे, जिसकी वजह से तब के टेलीकॉम मिनिस्टर रहे दयानिधि मारन के आगे सरकार लाचार थी ? क्या यह सच नहीं है कि अतिरिक्त स्पेक्ट्रम जारी करने और स्पेक्ट्रम की कीमतों पर विचार करने में जीओएम की भूमिका को खत्म किया गया ? क्या यह सच नहीं है कि स्पेक्ट्रम आवंटन में ए राजा की मनमानी को सरकार समर्थन देती रही ? क्या यह सच नहीं है कि ए राजा ने अदालत में दावा किया कि मनमोहन सिंह और तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम के बीच स्पेक्ट्रम आवंटन पर चर्चा हुई थी और उस दौरान वे कई बार उनसे मिले थे ? क्या कैग ने अपनी रिपोर्ट में नहीं कहा कि एसटेल के प्रस्ताव के आधार पर जहां 157 लाइसेंसों से देश को कुल 65909 करोड़ रुपए मिल सकते थे जबकि ए राजा की कारस्तानी से देश को मात्र 12386 करोड़ रुपए मिले? क्या यह सच नहीं है कि कॉमनवेल्थ गेम्स में जमकर लूटपाट हुई और मनमोहन सरकार हाथ पर हाथ धरी बैठी रही? बेशक कांग्रेस को सरकार की नीतियों और प्रधानमंत्री की कार्यशैली की आलोचना का अधिकार है। लेकिन साथ ही उसे सत्तापक्ष के वार को सहने की क्षमता भी विकसित करनी होगी। अनावश्यक चीख-पुकार मचाने भर से भ्रष्टाचार की कालिख से सना चेहरा छिपने वाला नहीं है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)