कुतर्कों की बुनियाद पर टिका वामपंथी बुद्धिजीवियों का विलासी-विमर्श

शिवानन्द द्विवेदी
हिटलर के प्रचारक गोयबेल्स ने ये उक्ति यूँ ही नहीं कही होगी कि अगर किसी झूठ को सौ बार बोला जाय तो सामने वाले को वो झूठ भी सच लगने लगता है। भारत के संदर्भ में अगर देखा जाय तो आज ये उक्ति काफी सटीक नजर आती है। भारतीय राजनीति एवं समाज के विमर्शों में दो ऐसे शब्दों का बहुतायत प्रयोग मिलता है, जिनकी बुनियाद ही कुतर्कों और झूठ की लफ्फाजियों पर टिकी हुई है। ये दो शब्द हैं दक्षिणपंथ एवं फासीवाद। ये वो दो शब्द हैं जिनका वर्तमान भारतीय लोकतंत्र एवं इसकी राजनीतिक-सामाजिक संरचना से कोई वास्ता नहीं है । ये भ्रम और झूठ के बीच जिन्दा रखी गयीं वो शब्दावलियां हैं जिनको आयातित वामपंथी विचारधारा द्वारा भारतीय समाज एवं राजनीति में ज़हर की तरह कूट-कूट कर भर दिया गया है। अगर इन शब्दावलियों के उत्पति एवं इनकी वैचारिक सिद्धांतों की तह में जायें तो ये दोनों ही शब्द दो यूरोपीय देशों की आंतरिक एवं राजनीतिक संघर्षों की उपज नजर आयेंगी। चाहे वो इटली का फासीवाद हो अथवा फ्रांस का दक्षिणपंथ, दोनों का ही वजूद भारत में नहीं बल्कि यूरोपीय देशों में मिलता है। आपस में तमाम वैचारिक एवं सैद्धांतिक भिन्नताओं के बावजूद दक्षिणपंथ एवं फासीवाद के बीच की बड़ी समानता ये है कि ये दोनों ही वामधारा की मुखालफत करती हैं। आज जब दुनिया के अधिकांशत: देशों में लोकतांत्रिक सरकारों की स्थापना हो चुकी है एवं पूरी दुनिया में सामाजिक रूप से लोकतांत्रिकरण के प्रयास चल रहे हैं, ऐसे में वामधारा वालों के पास सिवाय फासीवाद एवं दक्षिणपंथ जैसी शब्दावलियों के नाम पर भ्रम का पुलिंदा खड़ा करने के बचता ही क्या है। भारत के संदर्भ में अगर इन शब्दावलियों के औचित्य पर बात करें तो यहाँ इन शब्दों का ना तो कोई वजूद है और ना ही इन शब्दावलियों के मूल सिद्धांतों पर कोई आंदोलन अथवा क्रान्ति ही हुई है।

झूठ के भरोसे ही सही जनता तक अपनी विचारधारा पंहुचा पाने में नाकामयाब रही वामपंथी विचारधारा हमेशा से शब्दों का मायाभ्रम रचती रही है। वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ भी उसी शब्दों के मायाजाल का एक उदाहरण मात्र है जिसने भारतीय राजनीति एवं लोकतंत्र के विमर्शों का कोण ही उलट कर रख दिया है। आज जरूरत है कि वामपंथियों को राष्ट्रवाद बनाम वामपंथ की बहस तक लाया जाय। हालांकि यह उनके लिए ‘डेंजर जोन’ है, लिहाज वे आना नहीं चाहेंगे। यह साबित हुआ तथ्य है कि राष्ट्रवाद का उभार वामपंथ की ताबूत में कील ठोकने का काम करेगा।

दरअसल, झूठ की बुनियाद पर टिकी सतही सच्चाई यही है कि इन शब्दावलियों को जिन्दा रखकर वामपंथी विचारक अपने से भिन्न विचारधाराओं पर निशाना आसानी से बना पाते हैं। भारतीय उदार राष्ट्रवाद को फासीवाद एवं दक्षिणपंथ का नाम देकर वामपंथी विचारको ने इतना अधिक कु-प्रचारित किया है कि दक्षिणपंथ जैसे शब्द को लेकर तो खुद राष्ट्रवादी ही भ्रम की स्थिति में हैं। हालाकि वर्तमान में कोई भी राजनीतिक दल घोषित तौर पर खुद दक्षिणपंथी नहीं बताता है।

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साभार: गूगल

भारत में जो राष्ट्रवादी होता है वही वामपंथ के इस फरेबी शब्दावली में दक्षिणपंथी घोषित कर दिया जाता है। आप तथ्यों को आधार मानकर ही देखिये तो आपको किसी ना किसी रूप में दक्षिणपंथ शब्द का प्रयोग करते भारी संख्या में वामधारा वाले विचारक ही मिलेंगे। हाँ इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि वामपंथी बुद्धिजीवियों के इस कुप्रचार के कारण दक्षिणपंथ को लेकर बहुसंख्यक राष्ट्रवादियों में भी अब भ्रम की स्थिति है कि दक्षिणपंथ और राष्ट्रवाद एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। दरअसल दक्षिणपंथ एवं राष्ट्रवाद के घालमेल की प्रमुख वजह वामपंथियों का कु-प्रचार ही है। इन शब्दावलियों के पीछे मूल तथ्य ये है कि सन 1789 की फ्रांस संसद में राजसत्ता के हिमायती लोगों को प्रेसिडेंट के दक्षिण में बैठने की जगह दी गयी जबकि फ्रांस क्रान्ति के समर्थकों को बाएं दिशा में स्थान मिला था। वहीँ से इस दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ की उत्पत्ति हुई। दक्षिण बनाम वाम की उत्पत्ति के इन मूल कारणों को आधार मानकर क्या कोई वाम विचारक यह बताना चाहेगा कि भारतीय संसद में इस तरह की कोई बैठक व्यवस्था की गयी है ? क्या भारत का कोई भी राजनीतिक दल जिनपर दक्षिणपंथी अथवा फासीवादी होने का आरोप लगता है, को दक्षिणपंथी विचारधारा के मुताबिक़ राजसत्ता की हिमायत करते देखा गया है ? सवाल ये भी है कि जिस समुदाय अथवा व्यक्ति पर आज दक्षिणपंथी होने का झूठा आरोप वामपंथी विचारक गढते हैं क्या उस समुदाय ने कभी लोकतांत्रिक व्यवस्था को नकारा है ? हमें समझना होगा कि भारतीय राष्ट्रवाद एक उदार एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। अत: भारतीय राष्ट्रवाद की तुलना फासीवादी मुसोलिनी के उस उग्र राष्ट्रवाद से करना भी बेहद अतार्किक है जिसमे शांतिवाद एवं स्वतंत्रता जैसे मूल्यों को खारिज किया गया था। दरअसल यह पूरा का पूरा मामला वामपंथी विचारकों का बौधिक फरेब एवं भ्रमजाल का है, जिसके अंदर राष्ट्रवादी समुदाय पूरी तरह से फंस चुका है।स्टालिन और लेनिन की हिंसात्मक तानशाही पर चुप्पी साधने वाले जब फासीवाद की बात करते हैं तो यह बेहद हास्यास्पद प्रतीत होता है। संवाद एवं चर्चा का पक्षधर होने के नाते राष्ट्रवादी खेमा अकसर ही इन शब्दों के जाल में उलझ जाता है और वामपंथी एजेंडे पर बहस करने लगता है।

सही एवं तर्कपूर्ण अर्थों में देखें तो राष्ट्रवाद एवं दक्षिणपंथ दो अलग-अलग शब्द हैं जिनको वामपंथियों द्वारा एक बता कर प्रचारित किया जाता रहा है। भारत में सही बहस वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ की बजाय राष्ट्रवाद बनाम वामपंथ की होनी चाहिए थी। चुकि बहस के इस मोर्चे पर वामपंथी चारों खाने चित्त नजर आयेंगे अत: उन्होंने इस पुरे विमर्श को ही वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ एवं फासीवाद करार देने का बौद्धिक फरेब किया। कुल मिलाकर अगर देखें तो तो भारत के वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक संरचना में दक्षिणपंथ एवं फासीवाद शब्द का ना तो कोई अर्थ दिखता है और ना ही इसका कोई तार्किक एवं ऐतिहासिक महत्व ही नजर आता है, सिवाय वामपंथी कुतर्क के। वैसे भी पचास के दशक में दुनिया की सबसे प्रथम लोकतांत्रिक पद्धति से सत्ता में आई कम्युनिस्ट विचारधारा का भारतीय लोकतंत्र के इन पैसठ सालों में क्या हश्र हुआ है ये किसी से छुपा नहीं है। झूठ के भरोसे ही सही जनता तक अपनी विचारधारा पंहुचा पाने में नाकामयाब रही वामपंथी विचारधारा हमेशा से शब्दों का मायाभ्रम रचती रही है। वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ भी उसी शब्दों के मायाजाल का एक उदाहरण मात्र है जिसने भारतीय राजनीति एवं लोकतंत्र के विमर्शों का कोण ही उलट कर रख दिया है। आज जरूरत है कि वामपंथियों को राष्ट्रवाद बनाम वामपंथ की बहस तक लाया जाय। हालांकि यह उनके लिए ‘डेंजर जोन’ है, लिहाज वे आना नहीं चाहेंगे। यह साबित हुआ तथ्य है कि राष्ट्रवाद का उभार वामपंथ की ताबूत में कील ठोकने का काम करेगा।