शिवानन्द द्विवेदी

राष्ट्रकवि दिनकर और वामपंथी मठाधीशी

राष्ट्र, संस्कृति एवं भारत-भूमि के परम्परागत मूल्य जैसे शब्दों एवं से प्रेरित लेखकों, कवियों का जिक्र आता है, तो रामधारी सिंह दिनकर याद आते हैं। दिनकर का लेखन किसी एक विधा तक केन्द्रित न होकर समग्र था। वे राष्ट्रीयता के स्वरों को काव्य एवं गद्य दोनों ही विधाओं में मुखरता से उठाते रहे हैं। लेकिन

मोदी-शाह की जुगलबंदी से कुछ बुद्धिजीवी डिप्रेशन में क्यों हैं ?

कुछ महीने पहले एक प्रसिद्ध स्तम्भकार का लेख एक वेबसाईट पर छपा था कि वो डिप्रेशन में हैं क्योंकि मोदी और शाह देश चला रहे हैं। लेख का हेडिंग था, ‘आई एम डिप्रेस्ड, मोदी एंड अमित शाह आर रनिंग दिस कंट्री’। उनके डिप्रेशन की वजहें हैं। हालांकि यह डिप्रेशन सिर्फ उन्हीं को नहीं है बल्कि

हिंदी साहित्य के प्रथम और अंतिम आलोचक नहीं हैं नामवर सिंह : रामदेव शुक्ल

प्रख्यात कथाकार,आलोचक एवं दीनदयाल उपाध्याय विश्विद्द्यालय गोरखपुर के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. रामदेव शुक्ल से हुई बात-चीत का कुछ अंश: सवाल : नमस्कार। एक प्रसिद्ध कथाकार एवं उपन्यासकार के तौर पर साहित्य जगत में आपकी ख्याति रही है। गद्य लेखन की उपन्यास विधा को लेकर जब साहित्यकारों के बीच मतैक्य नहीं है ऐसे में लेखन की

अब तो दिल्ली के तुगलक का दरबार छोड़ दीजिये मैत्रेयी पुष्पा जी!

हिंदी दिवस पर दिल्ली सरकार के अतर्गत आने वाली हिंदी अकादमी एकबार फिर विवादों में है। विवाद की वजह सम्मान-वापसी से जुड़ा है। घबराइये मत, यह सम्मान वापसी अवार्ड वापसी वाले उस असहिष्णुता इवेंट जैसा नहीं है। इसबार आम आदमी पार्टी सरकार के अंतर्गत आने वाली दिल्ली हिंदी अकादमी ने हिंदी दिवस पर तीन साहित्यकारों

हिंदी दिवस: हिंदी पत्रकारिता में कितनी बची हिंदी ?

पत्रकारिता एवं भाषा के बीच का परस्पर संबंध हमेशा से ही विमर्श का विषय रहा है। हिंदी भाषा की पत्रकारिता का मूल्यांकन कालखंडों के परिप्रेक्ष्य में मूलतया तीन बिन्दुओं पर किया जा सकता है। वो तीन बिंदु हैं, पत्रकारिता का भाषाई स्वरुप कैसा था, वर्तमान में कैसा है एवं इसका भावी भाषाई स्वरुप कैसा हो

सावरकर ही नहीं अंबेडकर के खिलाफ भी है जेएनयू की लेफ्ट-यूनिटी

भारत में सावरकर, अम्बेडकर और वामपंथ तीनों की बहस एक कालखंड में पैदा हुई बहस है, जो आज भी प्रासंगिक है। सावरकर की राष्ट्रवादी विचारधारा वामपंथियों के निशाने पर तब भी थी, आज भी है। वहीँ अम्बेडकर, सावरकर की हिन्दू एकजुटता के अभियान से सहमत थे जबकि अम्बेडकर वामपंथियों की जमकर आलोचना करते थे। अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि वामपंथी विचारधारा संसदीय लोकतंत्र के

मोदी सरकार के मजबूत नेतृत्व का असर, जी-२० में पहली पंक्ति में मिली भारत को जगह!

यह संयोग ही है कि चौदह साल बाद दूसरी बार भारत के प्रधानमंत्री को ग्रुप-२० समिट में पहली कतार में खड़ा होने का अवसर मिला है। इसके पूर्व वर्ष २००२ में जब ग्रुप-२० समिट का आयोजन भारत में किया गया था, तो मेहमान देश होने के नाते भारत के प्रधानमंत्री पहली पंक्ति में खड़े हुए थे। यह संयोग ही है कि तब भी देश में भाजपा-नीत राजग की सरकार थी और आज चौदह साल बाद जब विदेशी जमीन पर किसी

यूपी चुनाव कांग्रेस लड़ रही है या प्रशांत किशोर लड़ रहे हैं ?

राजनीति में हार-जीत स्थायी नहीं होती है। यह एक क्रम है जो कभी इस पाले तो कभी उस पाले के अनुकूल होता है। आजादी के बाद नेहरु से शुरू हुई कांग्रेस इंदिरा गांधी से होते हुए राजीव, सोनिया और राहुल गांधी तक पहुंची है। इस दरम्यान लगभग पांच दशकों तक कांग्रेस सत्ता में रही है, जिसमें लगभग तीन दशक से ज्यादा सत्ता के शीर्ष पर नेहरु का परिवार रहा है। अब केंद्र की सत्ता बेशक कांग्रेस के पास नहीं है,

कॉमरेड कृष्णा सोबती की असहिष्णुता, संघियों से न कराओ विमोचन!

असहिष्णुता का मुद्दा अभी पुराना नहीं हुआ है। यह मुद्दा खूब उछाला गया था। राष्ट्रवादी विचारधारा के विरोधी खेमे ने ‘असहिष्णुता’ शब्द को अन्तराष्ट्रीय बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। उनका आरोप था कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। खैर, यह देश असहिष्णु है कि नहीं इसपर खूब बहस हो चुकी है लेकिन इस देश के बौद्धिक संस्थानों में पूर्व की कांग्रेसी सरकारों एवं बाहर के आयातित फंड पर अकादमिक संस्थानों के सहारे पलने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी जरुर असहिष्णु हैं।

कश्मीर में ‘राष्ट्रवादी विचारधारा’ की जीत है महबूबा मुफ्ती का बयान

तीन-चार महीने पूर्व एक टीवी न्यूज़ कार्यक्रम में एंकर ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह…