काउंटर फैक्ट

इतिहास बताता है कि राष्ट्र के लिए हर प्रकार से घातक सिद्ध हुए हैं वामपंथी !

सैद्धांतिक तौर पर वामपंथी विचारधारा उस पक्ष की संवाहक है, जो समाज को बदलकर उसमें अधिक आर्थिक बराबरी का दावा करती है। लेकिन जिस तरह वह राजनीतिक आंदोलन और सर्वहारा वर्ग की क्रांति की आड़ में सत्ता की कमान हड़पकर विचारधारा के फैलाव के लिए हिंसा का सहारा लेती है, उससे साफ है कि उसका व्यवहारिक पक्ष विचारधारा कम, हिंसा का खौलता हुआ कुंड ज्यादा है। वामपंथी विचारधारा के गर्भ

आख़िर किन कारणों से आज अपने सबसे बुरे राजनीतिक दौर में पहुँच गयी है कांग्रेस ?

कांग्रेस अस्थिरता के दौर से गुज़र रही है। किसी भी पदाधिकारी की नियुक्ति होती है और कुछ ही दिन बाद उसे बदल दिया जाता है। ऐसा लगता है जैसे पार्टी को पता ही नहीं है कि उसे जाना किधर है और करना क्या है। जागरूक होता मतदाता अब कांग्रेस की वोटबैंक की राजनीति, तुष्टिकरण की कोरी बातों में नहीं आना चाहता। वह सकारात्‍मकता, प्रगति और समकालीनता चाहता है। तुष्टिकरण की

ममता सरकार को लाल बत्ती से इतना लगाव क्यों है ?

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का भाजपा-विरोध तो जगजाहिर है, लेकिन अब वे सभी सीमाएं लांघते हुए केंद्र की भाजपा सरकार के सही फ़ैसलों का विरोध करती नज़र आ रही हैं। इसकी शुरुआत उन्होंने नोटबन्दी से की, बाद में वे नीति आयोग की बैठक में अनुपस्थित रहीं जहाँ हर राज्य के मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्यों में विकास संबंधित मुद्दों पर विमर्श करने के लिए उपस्थित थे। इस बैठक से ममता बनर्जी के अलावा

ये कैसा हैकर है मनीष सिसोदिया जी कि बस एक रिट्वीट करके छोड़ दिया ?

आम आदमी पार्टी के बड़े नेता मनीष सिसोदिया जो दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री भी हैं, ने हाल ही में एक ऐसे ट्वीट जिसमे अन्ना हजारे को साफ़ तौर पर धोखेबाज कहा गया था, को रिट्वीट कर उसके प्रति अपना समर्थन व्यक्त कर दिया। जब इस ट्वीट के समर्थन को लेकर उनकी निंदा होने लगी तो अपने बचाव में उन्होंने वही तरीका अपनाया जिसका पाठ केजरीवाल ने अपनी पूरी कैबिनेट को बहुत अच्छे ढंग से पढाया है। उन्होंने कहा कि

वामपंथी मानवाधिकारवादियों के मुँह से नक्सलियों के खिलाफ एक शब्द भी क्यों नहीं सुनाई दे रहा ?

वाम विचारधारा के तथाकथित मानवाधिकारवादी आम नागरिकों से लेकर सुरक्षा बलों के मानवाधिकारों के हनन पर तो खामोश हो जाते हैं; पर अपराधियों, नक्सलियों, पत्थरबाजों के मानवाधिकारों को लेकर बहुत जोर-शोर से आवाज बुलंद करते हैं। अरुंधति राय से लेकर आनंद पटवर्धन समेत दूसरे भांति-भांति के स्वघोषित बुद्धिजीवियों और स्वघोषित मानवाधिकार आंदोलनकारियों के लिए

नक्सलियों के पैरोकार वामपंथी बुद्धिजीवियों को बेनकाब करने की ज़रूरत

इस देश के तथाकथित व्यवस्था विरोधी बुद्धिजीवी नक्सलियों के रोमांटिसिज्म से ग्रस्त हैं और नक्सलियों के वैचारिक समर्थन को जारी रखने की बात करते हैं । उन्हें नक्सलियों के हिंसा में अराजकता नहीं बल्कि एक खास किस्म का अनुशासन नजर आता है । नक्सलियों की हिंसा को वो सरकारी कार्रवाई की प्रतिक्रिया या फिर अपने अधिकारों के ना मिल पाने की हताशा में उठाया कदम करार देते हैं ।

नक्सलगढ़ की छाती पर सवार हो रही सड़कें

इस बात में कोई संदेह नहीं कि सड़कें धीमी गति से ही सही, नक्सलगढ़ की छाती पर सवार हो रही हैं और परिवेश बदल रहा है। भय का वातावरण सड़कों के आसपास से कम होने लगा है। रणनीतिक रूप से पहले एक कैम्प तैनात किया जाता है, जिसे केंद्र में रख कर पहले आस-पास के गाँवों में पकड़ को स्थापित किया जाता है। आदर्श स्थिति निर्मित होते ही फिर अगले पाँच किलोमीटर पर एक और

उनका इतिहास कमजोर है, जिन्हें आज़ादी की लड़ाई में संघ का योगदान नहीं दिखता !

संघ की शाखाएं राष्ट्र निर्माण की प्रयोगशाला है जहां स्वयंसेवकों को राष्ट्रीय व सामाजिक गुणों से लैस किया जाता है। संघ के अनेकों संगठन मसलन सेवा भारती, विद्या भारती, स्वदेशी जागरण मंच, हिंदू स्वयंसेवक संघ, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भारतीय किसान संघ अपने कार्यों से देश के रचनात्मक विकास में योगदान दे रहे हैं। सच तो यह है कि

लगातार मिल रही पराजयों से तो सबक ले आम आदमी पार्टी

आम आदमी पार्टी को शायद अब रुकना चाहिए। सांस लेकर यह सोचना चाहिए कि क्या दिल्ली में मिले मैंडेट का उसने सही उपयोग किया है? यह सोचने पर केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को समझ आएगा कि दिल्ली में मिले जनादेश का उन्होंने अपने अबतक के शासन में केवल दुरूपयोग किया है। केवल केंद्र सरकार और उपराज्यपाल से बेवजह की खींचतान और अपने लोगों को

केरल की वामपंथी हिंसा का जवाब देने के लिए अब मिशन मोड में भाजपा

ईश्वर की धरती कहलाने वाला केरल दानव की धरती बन चुकी है। संघ और भाजपा के कार्यकर्ता यहाँ लगातार वामपंथी गुंडों का निशाना बन रहे हैं। मगर, इसपर मीडिया से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक खामोशी पसरी है। क्या केरल में मारे जाने वाले इंसान नहीं हैं? क्यों केरल में हो रही हत्याओं पर कथित प्रगतिशील लेखक बिरादरी अपने पुरस्कार वापस नहीं करती?