पॉलिटिकल कमेंटरी

दिल्ली भाजपा को और मजबूती देंगे मनोज तिवारी

बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व ने अपने दिल्ली संगठन में एक बड़ा बदलाव करते हुए भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता, मशहूर गायक और उत्तरी दिल्ली के सांसद मनोज तिवारी को पार्टी का प्रदेशाध्यक्ष नियुक्त कर दिया है। मनोज को मौजूदा पार्टी अध्यक्ष सतीश उपाध्याय की जगह यह जिम्मेदारी सौंपी गई है। मनोज तिवारी सिर्फ पूर्वांचल के लोगों में ही लोकप्रिय नहीं हैं, चूंकि वे फिल्मी दुनिया से जुड़े हुए हैं, इसीलिए हर क्षेत्र के

निकाय चुनावों में भाजपा की इस बम्पर जीत के बाद तो नोटबंदी के विरोध की राजनीति बंद करें विपक्षी!

वैसे तो हर चुनाव का मुद्दा और कलेवर अलग होता है। उसमे भी स्थानीय निकाय और नगर पंचायत चुनावों का मुद्दा पूर्णतया स्थानीय होता है। परंतु पिछले दिनों महाराष्ट्र और गुजरात मे निकाय चुनाव का आयोजन विमुद्रीकरण के साए में हुआ जहां पर अन्य स्थानीय मुद्दों के अलावा विमुद्रीकरण चुनाव में बड़ा मुद्दा था और हर पार्टी इस मुद्दे को भुनाने में लगी थी। इस चुनाव मे भाजपा ने भारी जीत दर्ज की जिसे प्रधानमंत्री

नोटबंदी पर जनसमर्थन की सूचक है निकाय चुनावों में भाजपा की जीत

प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 8 नवम्बर को पांच सौ और हजार के नोटों पर प्रतिबन्ध का ऐलान करने के बाद से इस निर्णय को लेकर राजनीतिक गलियारों में हो-हल्ला मचा हुआ है। विपक्ष द्वारा लगातार सरकार के इस निर्णय को जनता को परेशान करने वाला बताया जा रहा है। नोटबंदी पर जनता का मिजाज़ मांपने के लिए तमाम मीडिया संस्थानों द्वारा सर्वेक्षण भी किए गए, जिनमें इसके प्रति लोगों का समर्थन ही सामने आया।

निकाय चुनाव: नोटबंदी के निर्णय पर जनता की मुहर

आठ नवंबर को रात आठ बजे राष्ट्र के नाम संदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच सौ और एक हजार के नोट बंद होने का फैसला सुनाकर सबको चौंका दिया था। इस बात को अब बीस दिन से ज्यादा हो गए हैं लेकिन आज भी यह विमर्श का सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है। हालांकि विमुद्रीकरण के फैसले के बाद से ही इसके पक्ष-विपक्ष में बहस शुरू हो गयी, जो अब भी चल रही है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस,

पीओके पर फारुक अब्दुल्ला का बेसुरा राग

कश्मीर को को लेकर बंटवारे के बाद से ही भारत और पाकिस्तान के रिश्तों की खटास किसी से छिपी नहीं है। गाहे-बगाहे यह मुद्दा अन्तरराष्ट्रीय पटल पर भी उठाया जाता रहा है। तमाम विवादों और समझौतों के बीच खुद को भारतीय माननें वाले अथवा भारतीय होने का गर्व करने वाले किसी भी आम जन या ख़ास के मन में इस बात को लेकर शायद ही कोई संदेह हो कि लाइन ऑफ़ कंट्रोल के पार कश्मीर का जो

मोदी सरकार को अर्थनीति सिखाने से पहले ज़रा अपनी गिरेबान में तो झाँक लीजिये, मनमोहन सिंह जी!

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जी, संसद में आपकी इस तकरीर कि नोटबंदी संगठित और कानूनी लूट-खसोट है और इस फैसले से देश के किसानों और उद्योगों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, ने कुल मिलाकर देश को हंसते-हंसते लोटपोट हो जाने का ही मौका दिया है। आपका यह प्रवचन ठीक उसी प्रकार है, जैसे कोई रोगी वैद्य किसी मरीज को बेहतर दवाओं का नुस्खा बताता है। आपको भान होना चाहिए कि स्वयं

मोदी सरकार को किस मुँह से अर्थशास्त्र सिखा रहे हैं, मनमोहन सिंह ?

संसद में नोटबंदी पर जारी बहस में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी आखिर अपनी बात रखी। चूंकि बतौर अर्थशास्त्री उनकी ख्याति विश्वस्तरीय है, इसलिए उम्मीद थी कि इस आर्थिक निर्णय का वे आर्थिक दृष्टि से मूल्यांकन करेंगे। लेकिन, अपने लगभग पंद्रह मिनट के वक्तव्य में मनमोहन सिंह ने जिस तरह से इस निर्णय की उसी अतार्किक ढंग और लीक जिसपर उनकी पार्टी के बाकी नेता चल रहे हैं, पर

नोटबंदी का अतार्किक विरोध कर देश का भरोसा खोता विपक्ष

नोटबंदी के बाद जनता के मन में एक भावना आसानी से देखी जा सकती है कि प्रधानमंत्री के इस फैसले को वह हर तरह की परेशानी के बाद भी काला धन रखने वालों और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ देख रही है। और जनता की इस भावना ने दरअसल देश के विपक्ष के लिए कतार में लगी जनता से ज्यादा परेशानी की जमात खड़ी कर दी है।

नोटबंदी के निर्णय से खुश है जनता, बस विपक्षी दलों को हो रही पीड़ा

एक कहावत है कि प्रहार वहां करो जहां चोट पहुंचे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसा ही करके काले धन के कारोबारियों और काली कमाई से सियासत का मचान तान रखे सियासतदानों की कमर तोड़ दी है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि छलपूर्वक अर्जित की गयी काली कमाई को कैसे और कहाँ ठिकाने लगाएँ। अब उन्हें चारों तरफ का रास्ता बंद नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री ने दो टूक कह भी दिया है कि उनका अगला

खबरदार, यह ईमानदारों की कतार है, बेईमान दूर रहें!

केंद्र सरकार द्वारा पांच सौ और एक हजार के नोट बंद करने के फैसले के बाद से ही मोदी-विरोधी एक राजनीतिक जमात में भूचाल की स्थिति है। इस साहसिक एवं ऐतिहासिक निर्णय के दूरगामी नफा-नुकसान पर बहस करने की बजाय कुछ राजनीतिक जमात के लोग बैंकों की कतारों पर बहस करना चाहते हैं। चूँकि, इस निर्णय को लेकर आम जनता के मन में एकतरफा समर्थन का भाव खुलकर दिख रहा है, लिहाजा