मोदी सरकार को किस मुँह से अर्थशास्त्र सिखा रहे हैं, मनमोहन सिंह ?

संसद में नोटबंदी पर जारी बहस में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी आखिर अपनी बात रखी। चूंकि बतौर अर्थशास्त्री उनकी ख्याति विश्वस्तरीय है, इसलिए उम्मीद थी कि इस आर्थिक निर्णय का वे आर्थिक दृष्टि से मूल्यांकन करेंगे। लेकिन, अपने लगभग पंद्रह मिनट के वक्तव्य में मनमोहन सिंह ने जिस तरह से इस निर्णय की उसी अतार्किक ढंग और लीक जिसपर उनकी पार्टी के बाकी नेता चल रहे हैं, पर चलते हुए आलोचना की तो ये निराश करने वाला था। उन्होंने हर तरीके से इस निर्णय को देश की अर्थव्यवस्था, जीडीपी, बैंकिंग क्षेत्र आदि के लिए हानिकारक बताया।

संप्रग सरकार के दौरान अपने मंत्रियों के घोटालों पर आँख मूंदे रहने वाले और सरकार की नीतिपंगुता के कारण अर्थव्यवस्था को बदहाली की ओर बढ़ने देने वाले मनमोहन सिंह आज हर तरह से उनसे बेहतर सिद्ध हो रही मोदी सरकार को निर्णय लेने और उसे लागू करने के तरीके की सीख आखिर किस मुँह से दे रहे हैं ? होंगे वे अर्थशास्त्र के बड़े विद्वान्, किन्तु यह कटु सत्य उन्हें स्वीकार लेना चाहिए कि लोकतंत्र की कसौटी पर वे स्वयं को एक कमजोर और लाचार नेता से अधिक कुछ सिद्ध नहीं कर सके। तब दस जनपथ के प्रति जिस निष्ठा में मौन रहके उन्होंने खुद की फजीहत कराई थी, आज उसी निष्ठा में बोलकर करा रहे हैं।

मनमोहन सिंह ने कहा कि वे नोटबंदी का विरोध नहीं कर रहे, पर इसके तरीके के खिलाफ हैं। इसका अचानक ऐलान करने के खिलाफ हैं। इससे अव्यवस्था पैदा हुई है। निश्चित तौर पर यह वही बात है, जिसको आधार बनाकर अधिकांश विपक्षी दलों द्वारा इस निर्णय का विरोध किया जा रहा है। जबकि वास्तविकता ये है कि इस नोटबंदी की अति-गोपनीय ढंग से योजना बनना और फिर अचानक ही इसका ऐलान करना ही इसे मारक बनाता है। इसके अचानक ऐलान के बाद काला धन धारकों को सोचने तक के लिए जरा भी समय नहीं मिल पाया होगा कि वे अपने अकूल खजाने को कैसे ठिकाने लगाएं और कैसे उसे मूल्यहीन होने से बचाएं। निश्चित तौर पर वे लोग अनेक तरीके अपना रहे हैं, पर सरकार ने ये निर्णय बिना तैयारी के नहीं लिया है। सरकार के पास भी उन काला धन धारकों की सभी चालों को नाकाम करने के लिए व्यवस्था तैयार दिख रही है। अगर वे डाल-डाल हैं तो सरकार पात-पात। सरकार की सक्रियता का ही नतीजा है कि भारी-भरकम पैसे इधर-उधर फेंके हुए और जलते हुए मिले हैं तो बहुत से लोगों ने अपनी अघोषित संपत्ति सार्वजनिक भी कर दी है, जिससे सरकार को टैक्स का लाभ हो ही रहा है। अब ऐसा तो नहीं है कि मनमोहन सिंह इन चीजों को देख-समझ नहीं रहे होंगे, उन्हें सबकुछ अच्छे-से समझ आ रहा होगा। लेकिन, उनके अर्थशास्त्री पर अब भी उनका कांग्रेस कम नेहरु-गांधी परिवार का वफादार होना अधिक भारी पड़ता दिख रहा है। इसलिए वे एक अर्थशास्त्री की नहीं, अंधविरोध से ग्रस्त एक एक कांग्रेसी राजनेता की भाषा बोल रहे।

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खैर, अर्थशास्त्री और कांग्रेसी नेता के अलावा वे देश के पूर्व प्रधानमंत्री भी हैं। अब यदि उनके प्रधानमंत्रित्व काल जिसमें देश ने घोटालों के एक से बढ़कर एक कीर्तिमान स्थापित किए, को देखें तो कहने की जरूरत नहीं रह जाती कि मनमोहन सिंह को वर्तमान सरकार को अर्थशास्त्र समझाने का कोई नैतिक अधिकार ही नहीं है। गौर करें तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने कारगिल युद्ध की विभीषिका और परमाणु परीक्षण के फलस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय असहयोग जैसी परिस्थितयों को झेलने के बावजूद मनमोहन सरकार को लगभग छः-सात के आसपास की वृद्धि दर दी थी, जिसे अपने दस साल के कार्यकाल के बाद 2014 में 4.7 प्रतिशत की हालत में पहुंचकर महान अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने मोदी सरकार को सौंपा।

मनमोहन सरकार के मंत्रियों के बड़े-बड़े घोटालों और कुनीतियों के कारण देश की आर्थिक दशा चरमराई हुई थी। सरकार की नीतिपंगुता के कारण दुनिया के कारोबारी यहाँ से अपना कारोबार समेट रहे थे। एकदम हताशा की दशा में जा चुकी देश की अर्थव्यवस्था को मोदी सरकार ने वहाँ से उठाकर अपने अबतक यानी लगभग ढाई वर्षों के शासनकाल में 7.6 प्रतिशत के स्तर तक पहुंचा दिया है, जिसके और भी अधिक बढ़ने की संभावना इस नोटबंदी के निर्णय के बाद जताई जा रही है। देश की अर्थव्यवस्था में एक आशा और निवेश का माहौल पनप चुका है। दुनिया की रेटिंग एजेंसियां इस बात की तस्दीक करती हैं। जीएसटी जैसा बड़ा आर्थिक सुधार का कदम उठाया गया है और उसमें भी ब्याज दरों को ऐसे रखा गया है कि आम आदमी के दैनिक जरूरतों की चीजों पर उसका अधिक प्रभाव न पड़े। तो कहने का अर्थ यह है कि मौजूदा सरकार निर्णय ले रही है और पिछली सरकार की तरह नीतिपंगुता का शिकार होकर नहीं बैठी है। इन निर्णयों में से कुछ का थोड़ा जल्दी तो कुछ का थोड़ी देर से असर दिखेगा। अब ऐसे में, सवाल यह उठता है कि संप्रग सरकार के दौरान अपने मंत्रियों के घोटालों पर आँख मूंदे रहने वाले और सरकार की नीतिपंगुता के कारण अर्थव्यवस्था को बदहाली की ओर बढ़ने देने वाले मनमोहन सिंह आज हर तरह से उनसे बेहतर सिद्ध हो रही मोदी सरकार को निर्णय लेने और उसे लागू करने के तरीके की सीख आखिर किस मुँह से दे रहे हैं ? होंगे वे अर्थशास्त्र के बड़े विद्वान्, किन्तु यह कटु सत्य उन्हें स्वीकार लेना चाहिए कि लोकतंत्र की कसौटी पर वे स्वयं को एक कमजोर और लाचार नेता से अधिक कुछ सिद्ध नहीं कर सके। तब दस जनपथ के प्रति जिस निष्ठा में मौन रहके उन्होंने खुद की फजीहत कराई थी, आज उसी निष्ठा में बोलकर करा रहे हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)