कश्मीर पर पाकिस्तान की भाषा बोल रही है कांग्रेस !

कश्मीर को स्थायी रूप से राख में डालने का काम इसी कांग्रेस के बड़े नेता और देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने किया था। उसे देश भुगत रहा है। तब पाकिस्तान ने बल प्रयोग से कश्मीर को हथियाने की कोशिश की तथा 22 अक्तूबर, 1947 को सेना के साथ कबाइलियों ने मुजफ्फराबाद की ओर कूच किया था। लेकिन, कश्मीर के नए प्रधानमंत्री मेहरचन्द्र महाजन के बार-बार सहायता के अनुरोध पर भी नेहरू के नेतृत्व वाली भारत सरकार उदासीन रही।

कश्मीर पर जो अक्षम्य भूलें पंडित जवाहर लाल नेहरु ने की, उस सिलसिले को कांग्रेस बेशर्मी से आगे बढ़ा रही है। केंद्र में मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर एनडीए को घेरने में जुटी कांग्रेस ने एक बड़ी गलती कर खुद को ही कटघरे में खड़ा कर लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए कांग्रेस ने जो किताब छापी है, उसमें प्रकाशित नक्शे को लेकर वह फंस गई है। कश्मीर पर भारत का अनाधिकृत कब्जा बताया गया है।

केंद्र में मोदी सरकार के तीन साल पूरा होने पर कांग्रेस ने ’राष्ट्रीय सुरक्षा पर आंच’ नाम की 16 पेज की यह किताब प्रकाशित की है। इसके पेज नंबर 12 पर जो नक्शा छापा गया है, उसमें कश्मीर को ‘इंडियन ऑक्यूपाइड कश्मीर’ लिखा हुआ है। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव गुलाम नबी आजाद ने  लखनऊ में पत्रकार वार्ता की और यह किताब भी बांटी।

कितनी शर्मनाक है कि एक तरफ भारत पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर पर अपना दावा सिद्ध कर रहा, तो दूसरी तरफ विपक्ष में बैठी कांग्रेस भारतीय कश्मीर को कब्जे वाला बता रही है। कांग्रेस का ये रुख न केवल बेहद शर्मनाक और निंदनीय है, बल्कि कश्मीर पर भारत के खिलाफ पाकिस्तान को मौका देने वाला भी है। कहीं न कहीं कश्मीर पर कांग्रेस की ये भाषा पाकिस्तान जैसी  है।

दरअसल कश्मीर को स्थायी रूप से राख में डालने का काम इसी कांग्रेस के बड़े नेता और देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने किया था। उसे देश भुगत रहा है। तब पाकिस्तान ने बल प्रयोग से कश्मीर को हथियाने की कोशिश की तथा 22 अक्तूबर, 1947 को सेना के साथ कबाइलियों ने मुजफ्फराबाद की ओर कूच किया था। लेकिन, कश्मीर के नए प्रधानमंत्री मेहरचन्द्र महाजन के बार-बार सहायता के अनुरोध पर भी नेहरू के नेतृत्व वाली भारत सरकार उदासीन रही।

भारत सरकार के गुप्तचर विभाग ने भी इस सन्दर्भ में कोई पूर्व जानकारी नहीं दी। कश्मीर के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने बिना वर्दी के 250 जवानों के साथ पाकिस्तान की सेना को रोकने की कोशिश की तथा वे सभी वीरगति को प्राप्त हुए। आखिर 24 अक्तूबर को माउन्टबेटन ने “सुरक्षा कमेटी” की बैठक की। परन्तु, बैठक में महाराजा को किसी भी प्रकार की सहायता देने का निर्णय नहीं किया गया।

26 अक्तूबर को पुन: कमेटी की बैठक हुई। माउन्टबेटन अब भी महाराजा के हस्ताक्षर सहित विलय प्राप्त न होने तक किसी सहायता के पक्ष में नहीं थे। आखिरकार 26 अक्तूबर को सरदार पटेल ने अपने सचिव वी. पी. मेनन को महाराजा के हस्ताक्षर युक्त विलय दस्तावेज लाने को कहा। सरदार पटेल स्वयं वापसी में वी. पी. मेनन से मिलने हवाई अड्डे पहुंचे। विलय पत्र मिलने के बाद 27 अक्तूबर को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई। भारतीय सेना ने कबाइलियों को खदेड़ दिया। सात नवम्बर को बारामूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया था परन्तु तब ही पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर तुरन्त युद्ध विराम कर दिया।

ऐतिहासिक गलती

बेशक अगर नेहरू ने उस ‘ऐतिहासिक गलती’ को न किया होता तो आज नहीं होती जम्मू-कश्मीर की समस्या। यह बात समझ से परे है कि जब पाकिस्तान के कबाइली हमलावरों को कश्मीर से खदेड़ा जा रहा था तब नेहरु को संघर्ष विराम करने की जल्दी क्या थी।और वह कारण आज तक ज्ञात नहीं है। 

देश के किसी भी नेता ने ऐसी ऐतिहासिक भूल नहीं की होगी। अगर उस समय संघर्षविराम की घोषणा न की होती तो कश्मीर का मुद्दा आज होता ही नहीं। नेहरू के  इस फैसले की वजह से आज कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के पास है। इसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि क्षेत्र आते हैं।

बात यहीं पर खत्म नहीं होती। माउन्टबेटन की सलाह पर पं. नेहरू  कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में ले गए। सम्भवत: इसके द्वारा वे विश्व के सामने अपनी ईमानदारी छवि का प्रदर्शन करना चाहते थे तथा विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते थे। एक और बड़ी  भूल पं. नेहरू ने तब की, जबकि देश के अनेक नेताओं के विरोध के बाद भी, शेख अब्दुल्ला की सलाह पर भारतीय संविधान में धारा 370 जुड़ गई। डा. भीमराव अम्बेडकर ने इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को जोड़ने से मना कर दिया।

इस पर प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने रियासत राज्यमंत्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा 17 अक्तूबर, 1949 को यह प्रस्ताव रखवाया। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा। दूसरे शब्दों में दो संविधान, दो प्रधान तथा दो निशान को मान्यता दी गई।  वस्तुत: इस धारा के जोड़ने से बढ़कर दूसरी कोई भयंकर गलती हो नहीं सकती थी।

एक और भूल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का “प्रधानमंत्री” बनाकर की। उसी काल में देश के महान राजनेता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान, दो प्रधान, दो निशान के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन किया। वे परमिट व्यवस्था को तोड़कर श्रीनगर गए जहां जेल में उनकी कथित तौर पर हत्या कर दी गई। अब देश की आजादी के 70 साल होने पर भी कांग्रेस बाज आने का नाम नहीं ले रही है और कश्मीर को भारत के कब्जे वाला कश्मीर बता रही है।

(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)