समस्या असहिष्णुता की नहीं, अभिव्यक्ति के अतिरेक की है !

सीबीआई के छापे मालिक के घर पर किसी अन्य कारण से पड़े, लेकिन उसे अभिव्यक्ति के हनन का मामला बना कर एनडीटीवी के ख्यात प्रस्तोता ने अपना एकांगी पक्ष रखा तो सोशल माध्यमों पर दूसरा पक्ष रखने वालों की बाढ़-सी आ गयी। ऐसी बहसों में गलत क्या है, जब मीडिया का दावा ही सच को उजागर करने का है?

तात्कालिक प्रतिवाद के लिये आज एक ही माध्यम उपलब्ध है, वह है सोशल मीडिया। फेसबुक अथवा ट्विटर पर केवल दक्षिणपंथी ही बोल रहे हों और वामपंथियों सहित सभी मौन व्रती हों, ऐसा नहीं है। यहाँ तू तू हो रही है, तो मैं मैं भी हो रही है और मुखरता के साथ सभी पक्ष अपने अपने तर्कों, तथ्यों अथवा विचारों को सामने रख रहे हैं। इसके अतिरिक्त निर्पेक्षतायें भी अभिव्यक्त हो रही हैं।

तकनीक के इस दौर में अधिकतम व्यक्तियों के पास अपनी बात रखने का न्यूनतम आवश्यक माध्यम मोबाईल उपलब्ध हो गया है। यहाँ हर व्यक्ति पक्ष और विपक्ष में मुखर है और इसका लाभ यह भी है कि खुले माध्यमों में अधकचरी सी दिखने वाली बहसें कई पढ़ने वालों को स्वतंत्र विचार बनाने, किसी विषय को सही दृष्टि से समझने में मदद करती हैं।

आज सम्पादक रचनाओं के न होने का रोना रोते रहते हैं, लेकिन सोशल माध्यम हर-पल अभिव्यक्त हो रहे हैं, हर क्षण किसी न किसी विवाद को जन्म दिया जा रहा है, हर पल उन विवादों का प्रतिवाद भी किया जा रहा है। विजुअल मीडिया की भी चाँदी हो गयी है, क्योंकि एसी टेबल पर बैठ कर उन्हें करना केवल इतना है कि दो-चार नामचीनों की विवादित सी दिखने वाली अभिव्यक्ति को उछालना है और टीआरपी का खेल सफल बनाना है।

मीडिया से जुड़े कुछ नामचीन लोग सोशल माध्यम पर कैसा बरताव कर रहे हैं, उस पर भी एक दृष्टि डालना आवश्यक है; यह सहिष्णुता वाले प्रकरण में पोलखोल जैसी ही बात है। सम्पादक और टीवी बहसों के चेहरे ओम थानवी फेसबुक पर लोगों को ब्लॉक करने के लिये प्रसिद्ध हैं, वे अगर आपकी मित्रता सूची में हों, तो उनके लिखे हुए से हाँ में हाँ न मिला कर देखिये, तत्काल अमित्र अथवा ब्लॉक कर दिये जायेंगे।

एक दो प्रकरणों में मित्रता सूची से हटाना या ब्लॉक करना सामान्य है, जब बात मर्यादा की सीमा के परे चली जाये, लेकिन किसी  सम्पादक का इस तरह छुई-मुई होना फेसबुक ने ही उजागर किया है; क्या इसे असहिष्णुता का उदाहरण नहीं माना जाना चाहिये? जहाँ तक राजनीति का सवाल है, इस देश में आजकल वही हावी है, आप फेसबुक पर राष्ट्रीय ख्याति के किसी भी कवि या कहानीकार का पन्ना खोल लीजिये, वहाँ वे कविताओं और रचनाओं से कम और विशेष किस्म की राजनीतिक टिप्पणियों को शेयर कर अधिक काम चलाते हैं।

आज लोग बहुत अभिव्यक्त हो रहे हैं, हर पक्ष के लोग अभिव्यक्त हो रहे हैं, हर तबके के लोग अभिव्यक्त हो रहे हैं, हर विचारधारा के लोग अभिव्यक्त हो रहे हैं, इसीलिये असहिष्णुता का रोना है कि कल तो हम बड़े वाले बुद्धिजीवी थे; माने हम जो बोलें वो पत्थर की लकीर, अब तो हर नत्थू-खैरा फन्ने खां बन रहा है।   

सहिष्ण्णुता और अभिव्यक्ति को ले कर सोशल मीडिया की आलोचना ही इसलिये है, क्योंकि इसमें निरंकुशता अवश्यम्भावी है। हर व्यक्ति अपनी सोच और समझ के अनुरूप जैसा चाहे वैसा ही अभिव्यक्त हो जाता है। अधिकांश के पास अच्छी भाषा नहीं है, क्या सार्वजनिक किया जाना चाहिये इसकी समझ नहीं है, यहाँ तक कि बहुत ही गलत उपयोग भी इस माध्यम का हुआ है। इस सब के बाद भी सच्चाई यह है कि भारत का लोक परिपक्व है और उसे अभिव्यक्ति की जितनी आजादी मिलेगी, लोकतंत्र भी उतना ही परिपक्व होता रहेगा।

आज यही सफलता मानें कि हम विचारधाराओं के मकड़जाल से साहित्य को इस माध्यम द्वारा आजाद करा पाने में सफल हुए हैं; आज यही सफलता मानें कि सम्पादकों के पूर्वाग्रहों से समाचारों को मुक्त कराने में हम सफल हुए हैं। आज यही सफलता माने कि पेड न्यूज और व्यूज वाले प्राईम टाईमों की पोल खोलने में सोशल मीडिया ने बड़ी भूमिका निभाई है और यही सबसे बड़ी सफलता है कि लोकतंत्र के हर पक्ष में उसकी सबसे प्राथमिक कड़ी अर्थात लोक भी मुखर हुआ है, अपनी बात कहने की ताकत पा सका है।

ऐसे में, एकांगी संचार माध्यमों विशेषकर विजुअल मीडिया को आत्मविवेचना करने की आवश्यकता है कि कहीं उनकी उपादेयता कम तो नहीं होती जा रही? सीबीआई के छापे मालिक के घर पर किसी अन्य कारण से पड़े, उसे अभिव्यक्ति के हनन का मामला बना कर एनडीटीवी के ख्यात प्रस्तोता ने अपना एकांगी पक्ष रखा तो सोशल माध्यमों पर दूसरा पक्ष रखने वालों की बाढ़-सी आ गयी। ऐसी बहसों में गलत क्या है, जब मीडिया का दावा ही सच को उजागर करने का है?

इस उदाहरण के आईने में हमें कथित मुख्यधारा कही जाने वाली मीडिया को कटघरे में रख कर ही असहिष्णुता के प्रश्न की विवेचना करनी चाहिये। सवाल यह उठता है कि अगर किसी समाचार अथवा बहस को देखते हुए हम जान गये हैं कि यह “क्रांतिकारी…बहुत क्रांतिकारी” किस्म का है, तो उसके विरुद्ध एक आम नागरिक होने के नाते अपना तात्कालिक प्रतिवाद कहाँ दर्ज करें?

यह सच्चाई है, प्रयोग कर के देखें कि चार दिन आप टीवी बंद रखें या स्वयं को सास-बहू वाले सीरियलों में व्यस्त रखें तो यह देश आपको स्वत: सहिष्णु लगने लगेगा। अभी ट्रांजीशन फेज़ है, सोशल मीडिया भी सेल्फ रेग्युलेशन का अधिकारी है और समय के साथ यह माध्यम अधिक परिपक्व होगा। मेरी दृष्टि में आज असहिष्णुता नहीं अभिव्यक्ति का अतिरेक ही वास्तविक मसला है और उसी की बेचैनी फैली हुई है।

(लेखक पेशे से वैज्ञानिक हैं। प्रख्यात लेखक हैं। दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)