आर्थिक सुधारों को गति देने में जुटी सरकार

सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा उठाये गये नीतिगत कदमों से वित्तीय बाजार की स्थिति में कुछ सुधार आया है और बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को नकदी की किल्लत का ज्यादा सामना नहीं करना पड़ रहा है, जिससे उधारी की लागत में भी कमी आई है।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के अनुसार कोरोना महामारी के नकारात्मक प्रभावों से निपटने के लिये सरकार खुदरा ऋणों जैसे, गृह, कार, पर्सनल आदि के क़िस्त एवं ब्याज को टालने या मॉरेटोरियम की मियाद बढ़ाने और आतिथ्य, विमानन, रियल एस्टेट आदि क्षेत्रों के ऋण को पुनर्गठित या रिस्ट्रक्चरिंग करने पर विचार कर रही है।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (साभार : DNA India)

फिलहाल, ऋण भुगतान में छूट या मॉरेटोरियम की अवधि को 31 अगस्त तक के लिये बढ़ाया गया है, जिसे पुनः बढ़ाने के लिये वित्त मंत्रालय भारतीय रिजर्व बैंक से विमर्श कर रहा है।

इसके अलावा, फिक्की की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को संबोधित करते हुए वित्त्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि सरकार ऋण पुनर्गठन की संभावनाओं पर भी रिजर्व बैंक के साथ चर्चा कर रही है।

वित्त्त मंत्री के अनुसार ऋण पुनर्गठन की जरूरत को सरकार सैद्धांतिक रूप से सही मान रही है। बैंक भी भारतीय रिजर्व बैंक से 3 लाख करोड़ रूपये के कर्ज को पुनर्गठित करने की माँग कर रहे हैं। मोटे तौर पर ये ऋण आतिथ्य, विमानन और रियल एस्टेट क्षेत्र से जुड़े हुए हैं, क्योंकि इन क्षेत्रों को कोरोना महामारी की वजह से सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है।

मॉरेटोरियम के तहत बैंक से ऋण लेने वालों को क़िस्त एवं ब्याज चुकाने में एक निश्चित अवधि तक के लिये राहत दी जाती है। उदाहरण के तौर पर वर्तमान में 31 अगस्त तक के लिये मॉरेटोरियम की अवधि प्रभावी है, इसलिये, इस अवधि तक बैंक से कर्ज लेने वालों को क़िस्त एवं ब्याज नहीं देना होगा, लेकिन सितंबर में उन्हें इकठ्ठे या किस्तों में क़िस्त एवं ब्याज दोनों अपने ऋण खातों में जमा करना होगा, अन्यथा ऋण खाते एनपीए हो जायेंगे।

अमूमन, पुनर्गठन के मामले में जब कंपनियों की माली हालात बहुत ज्यादा ख़राब हो जाती है, तो वे बैंकों से ऋण खातों को पुनर्गठित करने के लिये कहते हैं। चूँकि, इस विकल्प का चुनाव बैंकों के लिये भी मुफीद होता है, इसलिये, वे भारतीय रिजर्व बैंक से नकदी की किल्लत झेलने वाली कंपनियों के खातों को पुनर्गठित करने का आग्रह करते हैं।

दरअसल, कंपनी के दिवालिया होने पर कंपनी से बैंक जितनी वसूली कर सकते हैं, उससे कहीं अधिक पैसे बैंक को ऋण खातों के पुनर्गठन से मिलने की उम्मीद होती है। आमतौर पर ऋण का ब्याज दर कम करके या किस्तों के भुगतान की अवधि में इजाफा करके ऋण खातों का पुनर्गठन किया जाता है। इस प्रक्रिया के तहत ऋण के बदले कंपनी के शेयरों की भी अदला-बदली की जाती है।

इसका यह मतलब हुआ कि कंपनी के शेयरों के बदले बैंक, कंपनी का कुछ या पूरा ऋण माफ़ कर सकते हैं। ऋण खातों के पुनर्गठन के तहत कंपनी बैंक को बांड का कुछ हिस्सा देने के लिये भी राजी हो सकते हैं। कंपनी, बैंक से ब्याज या पूंजी का कुछ हिस्सा माफ करने के लिए भी आग्रह कर सकती है।

साभार : The Economic Times

कुछ लोग आर्थिक रूप से समर्थ होने के बावजूद भी मॉरेटोरियम का फ़ायदा उठा रहे हैं, जिसका वित्तीय क्षेत्र और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है। हालाँकि, उनके इस कदम से उन्हें ज्यादा ब्याज चुकाना होगा, क्योंकि बैंक आमतौर पर ऋण खातों में चक्रवृधि ब्याज प्रभारित करता है और मॉरेटोरियम का अर्थ ऋण माफी कतई नहीं है।

एक अनुमान के मुताबिक पहले से गैर निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) से जूझ रहे बैंकों के एनपीए में कोरोना महामारी की वजह से और भी ज्यादा वृद्धि हो सकती है और एनपीए में भारी इजाफा होने के बाद सरकारी बैंकों को नियामकीय शर्तों का अनुपालन करने में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि इनका औसत पूंजी पर्याप्तता अनुपात मार्च 2020 में 13 प्रतिशत था, जबकि न्यूनतम पूंजी आवश्यकता सितंबर 2020 तक बढ़कर 11.50 प्रतिशत होने का अनुमान है।

इस तरह, सरकारी बैंकों के पास सितंबर महीने में केवल 1.5 प्रतिशत अधिक पूँजी का कुशन  रह जायेगा, जो मॉरेटोरियम अवधि के समाप्त होने या बड़े कर्ज का पुनर्गठन नहीं होने से एनपीए राशि को समायोजित करने में समाप्त हो जायेगा। हालाँकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में बैंकों के प्रमुखों से बातचीत के दौरान उन्हें पैसों की कमी नहीं होने देने का आश्वासन दिया है।

सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा उठाये गये नीतिगत कदमों से वित्तीय बाजार की स्थिति में कुछ सुधार आया है और बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को नकदी की किल्लत का ज्यादा सामना नहीं करना पड़ रहा है, जिससे उधारी की लागत में भी कमी आई है।

फिर भी, सरकार विकास वित्त संस्थान या डेवलपमेंट फाइनैंस इंस्टीट्यूटशन (डीएफआई) की स्थापना करने पर कार्य कर रही है। डीएफआई सरकार के स्वामित्व वाली संस्था होगी और उन उद्योगों के लिये ऋण मुहैया करायेगी, जिन्हें वाणिज्यिक ऋणदाताओं से ऋण नहीं मिला है।

इसका स्वरूप कैसा होगा, इसकी रुपरेखा अभी पूरी तरह से साफ़ नहीं हुई है, लेकिन ऐसे अनुमान हैं कि उद्योगों की जरूरतों को पूरा करने में यह महती भूमिका निभा सकता है। रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास के अनुसार भी फंसे कर्ज या एनपीए से जूझ रहे बैंक उद्योग जगत की बहुत ज्यादा मदद कर पाने में समर्थ नहीं हैं।

इसलिए, उद्योगों की बुनियादी ढांचा वाली परियोजनाओं के लिए रकम जुटाने के लिये नये रास्ते तलाशने होंगे। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के इस बयान से डीएफआई की अहमियत बढ़ गई है। गौरतलब है कि इस संदर्भ में एक उच्चस्तरीय समिति ने 5 सालों में लगभग 111 लाख करोड़ रुपये की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए निवेश योजनायें भी तैयार की हैं।

(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के कॉरपोरेट केंद्र मुंबई के आर्थिक अनुसंधान विभाग में कार्यरत हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)