तीन तलाक की पैरवी में ‘किसकी’ भाषा बोल रहे हैं कपिल सिब्बल ?

कोई भी व्यक्ति किसी संगठन से तभी जुड़ता है, जब उसके विचार संगठन की विचारधारा से साम्य प्रकट करते हैं। अतः इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि संविधानिक पीठ के समक्ष रखे गए कपिल सिब्बल के विचार तीन तलाक पर कांग्रेस की विचारधारा से साम्य रखते होंगे। साथ ही, राजनीतिक तौर पर भी कांग्रेस तीन तलाक का स्पष्ट रूप से विरोध करते हुए कभी नहीं दिखी है। अतः ये क्यों न माना जाए कि कपिल सिब्बल संविधानिक पीठ के समक्ष जो कह रहे हैं, वो तीन तलाक को लेकर कांग्रेस की भी सोच है। या कहीं ऐसा तो नहीं कि अधिवक्ता के रूप में कपिल सिब्बल के मुँह से ये बातें कहवाकर कांग्रेस पर्दे के पीछे से साम्प्रदायिक तुष्टिकरण का खेल खेलना चाहती है?

बहती हुई नदी से ही निर्मल जल की आशा की जा सकती है। यह आश्चर्य में डालने वाली दलील है कि कोई प्रथा मध्ययुग से चली आ रही है, तो उसकी प्रासंगिकता आज भी होनी चाहिये। भारतीय मुस्लिम समाज में विशेष रूप से प्रचलित तीन तलाक तथा हलाला जैसी प्रथायें क्या स्त्री-अधिकारों का निकृष्टम उल्लंघन नहीं है? इससे भी बड़ी बात यह कि इस मसले पर सर्वोच्च न्यायालय की संविधानिक पीठ द्वारा की जा रही सुनवाई में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अधिवक्ता कपिल सिब्बल इन कु-प्रथाओं को सही ठहराने के लिये यह तर्क देते हैं कि जो प्रथा पंद्रह सौ वर्षों से चली आ रही है, वह असंवैधानिक नहीं हो सकती।

उनका यह भी मानना है कि अगर भगवान राम के अयोध्या में जन्म लेने को लेकर हिंदुओं की आस्था पर सवाल नहीं उठाए जा सकते तो तीन तलाक पर सवाल क्यों? ये सभी आवाक कर देने वाले वाक्यांश हैं। यहाँ यह भी प्रश्न उठता है कि इन तर्कों को केवल ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की मान्यता कह कर हलके में लेना चाहिये अथवा इसे कॉग्रेस पार्टी के बयान के तौर पर भी देखना चाहिये?

साभार ; गूगल

निश्चित तौर पर कपिल सिब्बल ने यह बातें एक अधिवक्ता के रूप में ही कही हैं, लेकिन अधिवक्ता से पहले वो कांग्रेस के एक प्रमुख नेता हैं और संप्रग सरकार के दौरान केन्द्रीय मंत्री भी रह चुके हैं; ऐसे में अगर वो तीन तलाक के पक्ष में इस तरह की आधारहीन दलीलें दे रहे हैं, तो प्रश्न कांग्रेस पार्टी पर भी उठता है।

चूंकि, कोई भी व्यक्ति किसी संगठन से तभी जुड़ता है, जब उसके विचार संगठन की विचारधारा से साम्य प्रकट करते हैं। अतः इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि संविधानिक पीठ के समक्ष रखे गए कपिल सिब्बल के विचार तीन तलाक पर कांग्रेस की विचारधारा से साम्य रखते होंगे। साथ ही, राजनीतिक तौर पर भी कांग्रेस तीन तलाक का स्पष्ट रूप से विरोध करते हुए कभी नहीं दिखी है। अतः ये क्यों न माना जाए कि कपिल सिब्बल संविधानिक पीठ के समक्ष जो कह रहे हैं, वो तीन तलाक को लेकर कांग्रेस की भी सोच है। या कहीं ऐसा तो नहीं कि अधिवक्ता के रूप में कपिल सिब्बल के मुँह से ये बातें कहवाकर कांग्रेस पर्दे के पीछे से साम्प्रदायिक तुष्टिकरण का खेल खेलना चाहती है?

इस संदर्भ में शाहबानो प्रकरण को भी उदाहरण की तरह लेना चाहिये। उच्चतम न्यायालय ने क्या तब न्याय संगत निर्णय नहीं लिया था? क्या धार्मिक कु-प्रथा की शिकार महिला को तलाक देने के पश्चात निर्वाह-व्यय दिया जाना उस पति की जिम्मेदारी नहीं थी, जिसने पाँच संततियाँ भी उत्पन्न की थी?  राजीव गाँधी के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस सरकार ने असाधारण बहुमत का लाभ उठा कर रूढ़िवादिता के पक्ष में कानून बना दिया था। कपिल सिब्बल क्या संवैधानिक अधिकारों के केवल तुष्टीकरण के लिये किये गये दुरुपयोग का इससे बड़ा उदाहरण तलाश सकते हैं? कितनी विचित्र बात है, जब यह दलील दी जाती है कि  – निकाह और तलाक दोनों कॉन्ट्रैक्ट हैं, तो दूसरों को इससे समस्या क्यों होनी चाहिए? किसी दूसरे को तकलीफ नहीं अपितु इन कु-मान्यताओं की पीड़ित लाखों शाहबानों को समस्या है, समाधान तो होना ही चाहिये।

साभार : गूगल

चौदह सौ वर्षों से अनेक धर्मों ने अपनी ऐसी रीतियों-कुरीतियों से मुक्ति पाई है जो किसी न किसी तरह धर्मावलम्बियों के मौलिक अधिकारों का हनन करती थीं। बाल-विवाह, बहु-विवाह, सतीप्रथा, देवदासी प्रथा जैसी अनेक खामियाँ दूर की गयी हैं, जिनकी जड़ें पंद्रह सौ वर्षों से भी अधिक प्राचीन थीं। धर्म या मज़हब व्यक्तिगत मसला है, लेकिन नागरिक संविधान प्रदत्त अधिकारों और कर्तव्यों से निर्वहित होते हैं।

हम भारत के लोग वर्ष 1950 से गणतंत्र हैं तथा हमारे संविधान की प्रस्तावना कहती है कि वह समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर  की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़  संकल्पित है। क्या यह भी कपिल सिब्बल जानते-समझते हैं अथवा उनके लिये यह खालिस व्यावसायिक मसला है? बड़ा प्रश्न यह कि पंद्रह सौ सालों से अधिक पुरानी लोक-आस्था से जुडी हुई अब भी अनेक कुरीतियाँ विद्यमान है तो क्या उन्हें संवैधानिक माना जायेगा? क्या यही देश में बहुत लम्बे समय तक एक छत्र शासन करने वाली कॉग्रेस पार्टी की भी राय है?

(लेखक पेशे से वैज्ञानिक हैं। प्रख्यात लेखक हैं। दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)