पतन की कगार पर खड़े वामपंथी खेमे की बौखलाहट

वामपंथी दूसरे विचार वाले लोगो को सहन ही नहीं कर सकते। हिंसा से विरोधी विचार को चुप करा देना इनकी संस्कृति है। इन दिनों भारत में केरल इसका जीता-जागता उदाहरण है। वहाँ आये दिन भाजपा-संघ कार्यकर्ताओं के हत्या की खबर वामपंथियों की असहिष्णुता को ही दर्शाती है। स्पष्ट है कि वामपंथियों के पास न तो शासन की कोई विचारसम्मत पद्धति है और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सम्मान ही है। यही कारण है कि आज देश में जनता ने इन्हें पतन की कगार पर ला खड़ा किया है। पतन की बौखलाहट में ये देश में होने वाली हर नकारात्मक घटना के लिए प्रधानमंत्री मोदी को जिम्मेदार ठहराने में लगे हैं।

आजकल वामपंथी विचार को मानने वाले छात्र संगठन, पत्रकार समूह और बुद्धिजीवियों में अजीबो-गरीब बेचैनी देखने को मिल रही है। हालांकि इस तरह के लक्षण और इनकी ओछी हरकतें कोई नई नहीं है। ये इन दिनों देश में होने वाली छोटी से बड़ी सारी नकारात्मक घटनाओं के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।

चाहें वो गौरी लंकेश का मामला हो या बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में हुई छेड़खानी की घटना और विद्यार्थियों द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का विषय – इन सब मामलों में बिना वजह प्रधानमंत्री मोदी का नाम उछालने का कुप्रयास ये वामपंथी खेमा कर रहा है। गौरी लंकेश की बेटी बार-बार कह रही है कि हत्या का संदेह नक्सलियों पर है। लेकिन, रवीश कुमार सरीखे पत्रकार सीधे प्रधानमंत्री को दोषी करार देने में लगे है। ये लोग यह भी भूल जाते हैं कि कानून व्यवस्था राज्य सरकार की जिम्मेवारी है और कर्नाटक में तो कांग्रेस की सरकार है, उससे जवाब माँगा जाना चाहिए। लेकिन, वामपंथी खेमा तो प्रधानमंत्री और भाजपा-संघ पर सवाल उठाने में लगा है।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अभी वहां का प्रशासन कार्रवाई कर रहा है, लेकिन वामपंथी संग़ठन इसका इस तरह से प्रचार-प्रसार कर रहे हैं, मानो देश में इंदिरा गांधी वाली इमरजेंसी लग गयी हो। रवीश एनडीटीवी का उपयोग पत्रकारिता की जगह दुष्प्रचार के लिए तो कर ही रहे हैं साथ में जंतर मंतर पर धरने पर भी बैठ जाते हैं। पता नहीं, ये उनकी पत्रकारिता है या वैकल्पिक विचार को नहीं सहन कर पाने के वामपंथी संस्कार। इसके पहले सिवान में एक पत्रकार की हत्या होती है, तब इन वामपंथी खेमों के मुँह से एक शब्द भी नही निकलता है। आखिर पत्रकार तो पत्रकार है, फिर यह भेद कैसा ? ये सारी घटनाएं इनकी मंशा पर प्रश्नचिन्ह खड़े करती हैं।

सांकेतिक चित्र

ये कोई नई बात नही है, ये खेमा शुरू से ही दुष्प्रचार में विश्वास करता रहा है और इस काम में माहिर है। के. एम. मुशी अपनी पुस्तक ‘पिल्ग्रिमेज टू  फ्रीडम स्ट्रगल’ में लिखते हैं, “1931 में स्वतंत्रता आंदोलन गांधी जी के नेतृत्व में अपने चरम पर था। कम्युनिस्ट लीडर तब मुझसे कहे कि देखो, गांधी का प्रभाव आंदोलन पर खत्म हो गया है और देश की जनता गांधी को बाहर फेक देगी। इसलिए आप हमारे संग़ठन को ज्वाइन कर लो और हमारे साथ काम करो।” इन्होने गाँधी और उनके विचारों के खिलाफ भी आन्दोलन के वक़्त खूब दुष्प्रचार की राजनीति की।

इन्हें स्वतंत्रता आंदोलन से ही दुष्प्रचार में महारथ हासिल है। के. एम. मुंशी ने लिखा है कि मैंने देखा, इनके हड़ताल करवाने के कारण बॉम्बे की टेक्सटाइल मिलें बर्बाद हो गयीं। टेक्सटाइल उद्योगों के बंद होने के कारण मजदूरों की स्थिति दयनीय हो गयी। ये तो है स्वतंत्रता आंदोलन की घटना। स्वतंत्रता के बाद बंगाल जैसे धनी राज्य के उद्योग-धंधे लंबे वामपंथी शासन के कारण बर्बाद  हो गए।

केरल को भी इन्होंने बर्बाद कर दिया है। केरल की अर्थव्यस्था पर भी इनकी कुनीतियों के प्रभाव दिख रहे हैं। आज केरल जैसे प्राकृतिक रूप से संपन्न और सुंदर प्रदेश की अर्थव्यवस्था का आधार सऊदी देशों से भेजे जाने वाले केरल के लोगो के मनीऑर्डर पर निर्भर हो गया है। वहां के लोगों को अपना प्रदेश-परिवार छोड़कर दूसरे देशो में अप्रशिक्षित श्रम में लगना पड़ता है। ये कम्युनिस्टो की नकारात्मक राजनीति के परिणाम हैं।

दूसरी चीज कि वामपंथी दूसरे विचार वाले लोगो को सहन ही नहीं कर सकते। हिंसा से विरोधी विचार को चुप करा देना इनकी संस्कृति है। इन दिनों भारत में केरल इसका जीता-जागता उदाहरण है। वहाँ आये दिन भाजपा-संघ कार्यकर्ताओं के हत्या की खबर इनके असहिष्णुता को दर्शाती है। स्पष्ट है कि वामपंथियों के पास न तो शासन की कोई विचारसम्मत पद्धति है और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सम्मान ही है। यही कारण है कि आज देश में जनता ने इन्हें पतन की कगार पर ला खड़ा किया है। पतन की बौखलाहट में ये देश में होने वाली हर नकारात्मक घटना के लिए प्रधानमंत्री मोदी को जिम्मेदार ठहराने में लगे हैं।

(लेखक ‘कमल सन्देश’ पत्रिका में एसोसिएट एडिटर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)