केजरीवाल की राष्ट्रीय नेता बनने की निरर्थक महत्वाकांक्षा ने ‘आप’ को पतन की ओर धकेल दिया है !

आम आदमी को केंद्र में रखकर बनी इस पार्टी ने जिस व्‍यवस्‍था परिवर्तन और स्‍वराज का नारा दिया उसे समाज के सभी वर्गों का भरपूर साथ मिला। इसी का नतीजा रहा कि उसे दिल्‍ली विधान सभा चुनाव में अभूतपूर्व कामयाबी मिली। लेकिन यह कामयाबी अरविंद केजरीवाल की राष्ट्रीय नेता बनने की महत्‍वाकांक्षा की भेंट चढ़ गई। पार्टी के संस्‍थापक सदस्‍यों के एक-एक कर पार्टी छोड़ने के पीछे की वजह भी केजरीवाल की राष्ट्रीय नेता बनने की हसरत ही है। बिना कुछ किए राष्ट्रीय नेता बनने का केजरीवाल का यह ख्‍वाब अब पार्टी को असमय सूर्यास्‍त की ओर धकेल रहा है।

दिल्‍ली पर राज कर रही अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के लिए 23 अगस्‍त को होने वाला बवाना विधानसभा उप चुनाव एक इम्‍तिहान से कम नहीं है। एक के बाद एक कई चुनाव हारने के बाद अपनों की बगावत और केजरीवाल की छवि पर हो रहे चौतरफा हमले के कारण इस चुनाव का महत्‍व बहुत बढ़ गया है।

गौरतलब है कि व्‍यवस्‍था परिवर्तन का नारा लगाते हुए दिल्‍ली में सत्‍ता हासिल करने वाली आम आदर्मी पार्टी अपनी नकारात्‍मक गतिविधियों के चलते ज्‍यादा चर्चित रही है। विधायकों की गिरफ्तारी, फर्जी डिग्री, महिलाओं के साथ ज्‍यादती, केंद्र के साथ फिजूल का टकराव, बहानेबाजी, अनाप-शनाप बयानबाजी और कपिल मिश्रा के पुख्‍ता आरोपों के बाद केजरीवाल की खामोशी ने पार्टी की साख में बट्टा लगाने का काम किया।

पार्टी की साख गिरने का ही नतीजा है कि पंजाब में सरकार बनाने की अग्रिम तैयारी करने वाली पार्टी को महज 20 सीटें मिली जबकि 25 पर उसकी जमानत जब्‍त हो गई। कमोबेश यही हाल गोवा में भी हुआ। आमतौर पर उपचुनाव के नतीजे सत्‍ताधारी पार्टी के पक्ष में जाते हैं, लेकिन दिल्‍ली के राजौरी गार्डन उपचुनाव में आप को हार का सामना करना पड़ा। गौरतलब है कि इस सीट पर 2015 के चुनाव में जनरैल सिंह ने 54,000 से ज्‍यादा वोटों से विजय हासिल की थी, लेकिन उसी सीट पर हुए उपचुनाव में पार्टी की जमानत जब्‍त हो गई।

अरविन्द केजरीवाल

दिल्‍ली नगर निगम के चुनाव में भी पार्टी 270 में से 48 सीटों पर सिमट गई। इसी को देखते हुए पार्टी ने इस साल होने वाले गुजरात विधान सभा चुनाव में न उतरने का फैसला किया। केजरीवाल के इस फैसले पर भी सवाल उठने लगे हैं। चुनावी विश्‍लेषकों का मानना है कि मोदी को उनके गृह राज्‍य में हराने के लिए कांग्रेस से हुए गुप्‍त समझौते के तहत केजरीवाल ने गुजरात चुनाव न लड़ने का फैसला किया है ताकि द्विपक्षीय मुकाबले में कांग्रेज जीत जाए। हालांकि कांग्रेस की हालत जीतने वाली तो कत्तई नहीं दिखाई देती।

कांग्रेसी कुशासन और भ्रष्‍टाचार के खिलाफ लड़ाई में हीरो बनकर उभरने वाले केजरीवाल का कांग्रेस की गोद में जाकर बैठना जनता को नागवार गुजर रहा है। अपनी इस खामी को दूर करने और दिल्‍ली में सुशासन की राजनीति करने के बजाय केजरीवाल ईवीएम को कटघरे में खड़ा करने में जी जान लगाए हुए हैं। लेकिन ऐसा करते समय वे यह भूल जाते हैं कि इन्‍हीं ईवीएम मशीनों ने उन्‍हें दिल्‍ली में 70 में से 67 सीटों पर विजय दिलाई थी। केजरीवाल की ईवीएम राजनीति को खुद उनकी पार्टी के सांसद भगवंत मान ने यह कहते हुए नकार दिया कि सिर्फ ईवीएम का दोष नहीं है।  

स्‍पष्‍ट है आम आदमी पार्टी (आप) ने जिस शुचिता और ईमानदारी की राजनीति का आगाज किया था, उसका सूर्यास्‍त होने को है। राजनीति की दिशा और दशा बदलने का दावा करने वाली पार्टी का इस तरह अवसान होगा, यह किसी ने सोचा नहीं था। केजरीवाल ने जिस प्रकार बाहुबलियों व धनकुबेरों को टिकट दिया और व्‍यक्‍ति केंद्रित राजनीति शुरू की उससे यह सिद्ध हो गया है कि व्‍यवस्‍था परिवर्तन का ख्‍वाब दिखाने वाली पार्टी सत्‍ता की राजनीति से आगे नहीं बढ़ पाई।

इससे यह भी स्‍पष्‍ट हो गया कि भारत में वैकल्‍पिक राजनीति अपनी राह से भटक चुकी है। देश में यह पहली बार नहीं हुआ है। 1970 के दशक में जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति से निकले नेता सत्‍ता की मलाई को पचा नहीं पाए जिसका नतीजा इंदिरा गांधी की वापसी के रूप में सामने आया। कमोबेश यही हश्र महाराष्‍ट्र में रिपब्‍लिकन पार्टी ऑफ इंडिया और उत्‍तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी का हुआ। एक समय ऐसा था, जब इन क्षेत्रीय दलों के उभार ने कांग्रेस-भाजपा ही नहीं वामपंथी पार्टियों के माथे पर भी चिंता की लकीर पैदा कर दी थी लेकिन दोनों ही पार्टियां जनता की उम्‍मीदों पर खरी नहीं उतरीं।  

इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्षों से जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा, मंडल-कमंडल में उलझी राजनीति को आम आदर्मी पार्टी ने एक नई दिशा देने की उम्मीद लोगों में पैदा की। आम आदमी को केंद्र में रखकर बनी इस पार्टी ने जिस व्‍यवस्‍था परिवर्तन और स्‍वराज का नारा दिया उसे समाज के सभी वर्गों का भरपूर साथ मिला। इसी का नतीजा रहा कि उसे दिल्‍ली विधान सभा चुनाव में अभूतपूर्व कामयाबी मिली। लेकिन यह कामयाबी अरविंद केजरीवाल की राष्ट्रीय नेता बनने की महत्‍वाकांक्षा की भेंट चढ़ गई। पार्टी के संस्‍थापक सदस्‍यों के एक-एक कर पार्टी छोड़ने के पीछे की वजह भी केजरीवाल की राष्ट्रीय नेता बनने की हसरत ही है। बिना कुछ किए-धरे राष्ट्रीय नेता बनने का केजरीवाल का यह ख्‍वाब अब पार्टी को असमय सूर्यास्‍त की ओर धकेल रहा है।

(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)