सिंधु जल समझौता : नेहरू की ऐतिहासिक भूल को सुधारने में जुटी मोदी सरकार

दशकों बाद अब मोदी सरकार ने इस तरफ ध्यान देते हुए यह तय किया है कि भारत के हिस्‍से का पानी अब पाकिस्‍तान नहीं जाएगा। इस पानी को रोककर हरियाणा में पानी की किल्‍लत दूर की जाएगी। मोदी सरकार इस पानी को राजस्‍थान तक ले जाने की भी योजना बनाई है। इसके लिए सरकार उत्‍तराखंड में तीन बांध बनाने जा रही है, ताकि भारत की तीन नदियों के हिस्‍से का पानी, जो पाकिस्‍तान जा रहा है, उसे यमुना में लाया जा सके।

सत्‍ता के लिए तुष्टिकरण के तो कई उदाहरण मिल जाएंगे, लेकिन अपनी संप्रभुता को गिरवी रखने के उदाहरण भारत के अलावा पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलेंगे। कोको द्वीप म्‍यांमार को उपहार में देना, संयुक्‍त राष्‍ट्र सुरक्षा परिषद की स्‍थायी सदस्‍यता ठुकराना, पंचशील समझौता, अपनी जमीन को बंजर बताना, सिंधु जल समझौता ऐसे ही कुछेक उदाहरण हैं।

सिंधु जल समझौता, सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के पानी को भारत और पाकिस्‍तान के बीच बांटने से जुड़ा है। समझौते के अनुसार सिधु, रावी, व्‍यास, चेनाब, सतलुज और झेलम नदियों को पूर्वी और पश्‍चिमी भाग में बांटा गया है। पूर्वी नदियों (सतलुज, व्‍यास और रावी) पर भारत का अधिकार है, जबकि पश्‍चिमी नदियों (सिंधु, चेनाब और झेलम) पर पाकिस्‍तान का अधिकार माना गया।

समझौते के तहत भारत अपनी छह नदियों का करीब 80 फीसदी पानी पाकिस्‍तान को देता है। भारत के हिस्‍से आता है केवल 19.48 फीसदी पानी। समझौते में यह प्रावधान भी है कि भारत बिजली व जल परिवहन के लिए पश्‍चिमी नदियों के पानी का इस्‍तेमाल कर सकता है। इसके बावजूद पाकिस्‍तान भारत की सिंचाई और बिजली परियोजनाओं पर आपत्‍ति जताता रहा है। हालांकि उसे हर बार मुंह की खानी पड़ती है।

1960 में भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्‍तानी राष्‍ट्रपति अयूब खां के बीच हस्‍ताक्षरित यह संधि दुनिया की किसी भी जल संधि की तुलना में अधिक कठिनाई पैदा करती है। इसका कारण नेहरू द्वारा पाकिस्‍तान के प्रति बरती गई आत्‍मघाती उदारता है। संधि के एकतरफा प्रावधानों के अनुसार पश्‍चिमी नदियों के सीमा पार प्रवाह की मात्रा और समय पर भारत का कोई नियंत्रण नहीं है। चिनाब और झेलम से सबसे ज्‍यादा पानी सीमा पार जाता है और तीसरी धारा खुद सिंधु की मुख्‍य धारा है। यह संधि वास्‍तव में दुनिया की इकलौती अंतरदेशी जल संधि है, जिसमें सीमित संप्रभुता का सिद्धांत लागू होता है और जिसके तहत नदी की उपरी धारा वाला देश निचली धारा वाले देश के लिए अपने हितों की बलि देता है।

उल्‍लेखनीय है कि पूरी दुनिया में अंतर्देशीय नदियों के पानी का बंटवारा 50/50 फार्मूले के तहत होता है। लेकिन, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने महान (अ)दूरदर्शिता दिखाते हुए 80 फीसदी पानी पाकिस्‍तान को देने के समझौते पर खुद कराची जाकर दस्‍तखत कर दिया। क्‍या इसे राष्‍ट्रीय हितों को गिरवी रखना नहीं माना जाएगा ?

नदी जल बंटवारे पर नेहरू ने जो आत्‍मघाती कदम उठाया था, उसे लागू करने में आजाद भारत की कांग्रेसी सरकारों ने कोई कोताही नहीं बरती। इतना ही नहीं, भारत सरकार ने अपने हिस्‍से के 20 फीसदी पानी के इस्‍तेमाल की पुख्‍ता व्‍यवस्‍था भी नहीं की। यहां पंजाब राज्‍य का उदाहरण उल्‍लेखनीय है, जिसने हरियाणा को पानी देने में जबर्दस्‍त भेदभाव किया। आज भी पंजाब रावी, व्‍यास, सतलुज के पानी को हरियाणा को देने को राजी नहीं है, जिसका परिणाम यह होता है कि भारत के हिस्‍से का पानी पाकिस्‍तान जा रहा है। स्‍पष्‍ट है, भारत सिंधु जल प्रणाली के अपने हिस्‍से के 20 फीसदी पानी का भी इस्‍तेमाल नहीं कर रहा है।

दशकों बाद अब मोदी सरकार ने इस तरफ ध्यान देते हुए यह तय किया है कि भारत के हिस्‍से का पानी अब पाकिस्‍तान नहीं जाएगा। इस पानी को रोककर हरियाणा में पानी की किल्‍लत दूर की जाएगी। मोदी सरकार इस पानी को राजस्‍थान तक ले जाने की भी योजना बनाई है। इसके लिए सरकार उत्‍तराखंड में तीन बांध बनाने जा रही है, ताकि भारत की तीन नदियों के हिस्‍से का पानी जो पाकिस्‍तान जा रहा है, उसे यमुना में लाया जा सके।

उदार विदेश नीति के जरिए राष्‍ट्रीय हितों को गिरवी रखने की जो शुरूआत नेहरू युग में हुई थी, उसे सभी कांग्रेसी सरकारों ने आंख बंदकर अपनाया। यही कारण है कि फिलीस्‍तीनियों के मानवाधिकारों पर घड़ियाली आंसू बहाने वाली कांग्रेसी सरकारें पाकिस्‍तान-बांग्‍लादेश में अल्‍पसंख्‍यकों के कत्‍लेआम पर जबर्दस्‍त चुप्‍पी साधे रहीं। लंबे अरसे बाद मोदी सरकार मुस्‍लिमपरस्‍ती और वोट बैंक की राजनीति से उपर उठकर राष्‍ट्रीय हितों का निर्धारण कर रही है, जो भविष्‍य के लिए शुभ संकेत है।

(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)