राम और रामायण का विरोध करने वालों की मंशा क्या है?

क्यों देश के जाने-माने वकील प्रशांत भूषण को ऐसा लगता है कि ”जब करोड़ों लोग ‘जबरन तालाबंदी’ की वजह से परेशानी झेल रहे हैं तो सरकार बड़ी आबादी को दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत सीरियल्स के नाम पर अफ़ीम पिला रही है।” आम लोगों से सहानुभूति की आड़ में क्यों ये और इन जैसे कथित बुद्धिजीवी बार-बार इस देश की आस्था और विश्वास पर चोट करते हैं? क्योंकि ये चरित्र, ये शास्त्र, इन बुद्धिजीवियों की दुकानें बंद कराते हैं। आस्था और विश्वास की इस भाव-भूमि पर भारत-विरोध की इनकी विष-बेलें कभी जड़ें नहीं जमा सकतीं। सनातन संस्कृति के विरोध का उनका हर प्रयत्न हमें इसके प्रति और श्रद्धावनत बनाता है।

राम केवल एक नाम भर नहीं, बल्कि वे जन-जन के कंठहार हैं, मन-प्राण हैं, जीवन-आधार हैं। उनसे भारत अर्थ पाता है। वे भारत के प्रतिरूप हैं और भारत उनका। उनमें कोटि-कोटि जन जीवन की सार्थकता पाता है। भारत का कोटि-कोटि जन उनकी आँखों से जग-जीवन को देखता है। उनके दृष्टिकोण से जीवन के संदर्भों-परिप्रेक्ष्यों-स्थितियों-परिस्थितियों-घटनाओं-प्रतिघटनाओं का मूल्यांकन-विश्लेषण करता है।

भारत से राम और राम से भारत को विलग करने के भले कितने कुचक्र-कलंक रचे जाएँ, भले कितनी *वामी-विदेशी* चालें चली जाएं, यह संभव होता नहीं दिखता। क्योंकि राम भारत की आत्मा हैं। राम भारत के पर्याय हैं। राम निर्विकल्प हैं, उनका कोई विकल्प नहीं।

जिस प्रकार आत्मा को शरीर से और शरीर को आत्मा से कोई विलग नहीं कर सकता, उसी प्रकार राम को भारत से विलग नहीं किया जा सकता। राम के सुख में भारत के जन-जन का सुख आश्रय पाता है, उनके दुःख में भारत का कोटि-कोटि जन आँसुओं के सागर में डूबने लगता है। और वे अश्रु-धार भी ऐसे परम-पुनीत हैं कि तन-मन को निर्मल बना जाते हैं। अश्रुओं की उस निर्मल-अविरल धारा में न कोई ईर्ष्या शेष रहती है, न कोई अहंकार, न कोई लोभ, न कोई मोह, न कोई अपना, न कोई पराया।

रामायण धारावाहिक के एक दृश्य में भगवान राम और देवी सीता (साभार : India.com)

कैसा अद्भुत है यह चरित-काव्य, जिसे बार-बार सुनकर भी और सुनने की चाह बची रहती है और रसपान की प्यास बनी की बनी रह जाती है! कैसा अद्भुत है यह नाम जिसके स्मरण मात्र से नयन-चकोर उस मुख-चंद्र की ओर टकटकी लगाए एकटक निहारते रह जाते हैं! उस चरित्र को अभिनीत करने वाले, उस चरित्र को जीने वाले, लिखने वाले हमारी आत्यंतिक श्रद्धा के सर्वोच्च केंद्रबिंदु बन जाते हैं।

उसके सुख-दुःख, हार-जीत, मान-अपमान में हमें अपना सुख-दुःख, हार-जीत, मान-अपमान प्रतीत होने लगता है। उसकी प्रसन्नता में सारा जग हँसता प्रतीत होता है और उसके विषाद में सारा जग रोता।

कई बार मन पूछता है कि जिन करोड़ों लोगों की आँखें, मन-प्राण, जिस एक चरित्र में बसे-रमे हों, आख़िर किन षड्यंत्रों के अंतर्गत उस चरित्र के बखान का कुछ लोग विरोध करते हैं? क्यों प्रसिद्ध पत्रकार रवीश कुमार को सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से यह पूछना पड़ता है कि ”ये लाखों-करोड़ों लोग कौन हैं जो रामायण के पुनः प्रसारण की माँग कर रहे हैं।”  क्या इस सीरियल को मिली सर्वाधिक टीआरपी इसकी लोकप्रियता और इसे चाहने वालों की भारी संख्या बताने के लिए पर्याप्त नहीं?

क्यों काँग्रेस-राज में पद्मश्री से नवाजी जा चुकीं वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे ‘रामायण’ सीरियल के पुनः प्रसारण पर विषवमन करती हुईं ट्वीट करती हैं कि ”Bwahahaha……धन्य हो! घर में नहीं खाना, पर्दे पर रामायण!” क्या यह सत्य नहीं कि श्री राम का चरित्र और जीवन-संघर्ष हमें भी धीरज, साहस और संयम सिखाता है? क्या मृणाल पांडेय कांग्रेसी उपकार की क़ीमत जन-आस्था पर प्रहार कर चुकाना चाहती हैं?

क्यों देश के जाने-माने वकील प्रशांत भूषण को ऐसा लगता है कि ”जब करोड़ों लोग ‘जबरन तालाबंदी’ की वजह से परेशानी झेल रहे हैं तो सरकार बड़ी आबादी को दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत सीरियल्स के नाम पर अफ़ीम पिला रही है।” आम लोगों से सहानुभूति की आड़ में क्यों ये और इन जैसे कथित बुद्धिजीवी बार-बार इस देश की आस्था और विश्वास पर चोट करते हैं? क्योंकि ये चरित्र, ये शास्त्र, इनकी दुकानें बंद कराती हैं। आस्था और विश्वास की इस भाव-भूमि पर भारत-विरोध की इनकी विष-बेलें कभी जड़ें नहीं जमा सकतीं। सनातन संस्कृति के विरोध का उनका हर प्रयत्न हमें इसके प्रति और श्रद्धावनत बनाता है।

कई बार यह भी प्रश्न मन में आता है कि जिन करोड़ों लोगों के मन-प्राण जिस एक चरित्र में प्रतिपल लीन हों, भाव-विभोर हों, आख़िर किन षड्यंत्रों के अंतर्गत उसे काल्पनिक बताने का घनघोर अपराध किया जाता रहा है? पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिस चरित्र को हम एक गौरवशाली थाती के रूप में सहेजते-संभालते आए हों, उसके प्रति शंका के बीज वर्तमान पीढ़ी के हृदय में किसने और क्यों बोए?

जो एक चरित्र करोड़ों-करोड़ों लोगों के जीवन का आधार हो, जिनमें करोड़ों-करोड़ों लोगों की साँसें बसी हों, जिनसे कोटि-कोटि जन प्रेरणा पाते हों, जिन्होंने हर काल और हर युग के लोगों को संघर्ष और सहनशीलता की प्रेरणा दी हो, जिनके जीवन-संघर्षों के सामने कोटि-कोटि जन को अपना संघर्ष बहुत छोटा प्रतीत होता हो, जिनके दुःखों के पहाड़ के सामने अपना दुःख राई-सा जान पड़ता हो, जिसके चरित की शीतल छाया में कोटि-कोटि जनों के ताप-शाप मिट जाते हों, जो मानव को मर्यादा और लोक को आदर्श के सूत्रों में बाँधता-पिरोता हो, ऐसे परम तेजस्वी, ओजस्वी, पराक्रमी, मानवीय श्रीराम को क्या यह राष्ट्र इन कथित बुद्धिजीवियों के तथ्यों-तर्कों की तुला पर तौलने का कुकृत्य करेगा?

इन बुद्धिजीवियों के कथन पर कोटि-कोटि जनों के हृदय के स्पंदन, जीवन के उत्थान-पतन; एकमात्र आधार, शक्ति-सामर्थ्य के पारावार- श्रीराम को भी क्या अपने अस्तित्व का प्रमाण देना पड़ेगा? क्या जीवित सभ्यताएँ केवल निष्प्राण और निर्जीव साक्ष्यों-अभिलेखों के सहारे जीवन पाती हैं या जिंदा लोगों या धड़कनों का भी उसके लिए कोई अर्थ होता है? या चिर-परिचित ढिठाई से ये कथित बुद्धिजीवी- ख़ेमेबाज इतिहासकार कहते रहेंगें कि कोटि-कोटि जनों की श्रद्धा-आस्था-विश्वास का उनके लिए कोई अर्थ नहीं, कि चंद सिरफिरों का सत्य कोटि-कोटि जनों के युगानुगत-शास्त्रोक्त सत्य पर भारी है?

फिर ऐसे कुबुद्धि तथ्यों-साक्ष्यों-अभिलेखों का आधार पाकर भी अपने दुष्कृत्यों से कहाँ बाज आएँगे? क्या रामसेतु पर प्रश्न उठाने वाले लोग आज क्षमा मांगने के लिए तैयार हैं? क्या पाठ्य-पुस्तकों में श्रीराम को काल्पनिक और गल्प बताने वाले बुद्धिजीवी अकादमिक जगत से आज बहिष्कृत कर दिए गए हैं? क्या उन्हें अपने कुकृत्यों के लिए राष्ट्र और संपूर्ण मानवता से क्षमा नहीं माँगनी चाहिए? और यदि किसी को लाज न आए तो क्या उसे लजाना ही छोड़ देना चाहिए?

इस देश के कोटि-कोटि जन जो श्रीराम, श्रीकृष्ण एवं अन्य पौराणिक एवं महान चरित्रों से प्रेरणा पाते हैं, उन्हें अपनी संततियों को यह बताना चाहिए कि जिन्हें विद्वान/बुद्धिजीवी/इतिहासकार/साहित्यकार/शिक्षाविद बताकर तुम्हारे गले उतारा जा रहा है, दरअसल वे लोग किराए के बुद्धिजीवी हैं, कि वे लोग तुम्हारे पुरखों-पूर्वजों को मूढ़ सिद्ध करने की कुत्सित चेष्टा कर रहे हैं, कि उनका सत्य प्रायोजित और आरोपित है, कि उनका सत्य देश की चित्ति और चेतना, प्रकृति और संस्कृति के प्रतिकूल है। इसलिए सत्य के उन सूत्रों को मज़बूती से थामे रहो, जो युगों-युगों से काल की कसौटी पर खरे उतरते रहे हैं, जिनके निकष पर कसकर भारतीय संस्कृति बारंबार दैदीप्यमान होती रही है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)