पॉलिटिकल कमेंटरी

एक गौभक्त दलित की हत्या को कैसे खा गये सेक्युलर, पचा गयी थी मीडिया!

विश्व हिन्दू परिषद की एक स्टीरियोटाइप की छवि मीडिया ने बनाई है। जिसमें इस संगठन से जुड़े व्यक्ति के हाथ में तलवार होना अनिवार्य है। मीडिया द्वारा इनका चित्र ऐसा उकेरा गया है कि सिर पर भगवा कपड़ा बांधे, हाथ में भगवा ध्वज लिए जो युवक खड़ा होगा जिसके दूसरे हाथ में तलवार हो, वो विश्व हिन्दू परिषद का ही होगा। उसके बाद ही वह मीडिया में विश्व हिन्दू परिषद का कार्यकर्ता माना जाएगा। एक बात और उसके सिर पर तिलक होना भी जरूरी है।

झूठ-फरेब है ‘आप’ का असली चरित्र, केजरीवाल खुद हैं बड़े अराजक

केजरीवाल सरकार और विवादों का शुरू से ही चोली-दामन का साथ रहा है। वह…

हिंसा, दमन और तानाशाही है वामपंथी विचारधारा का असल चेहरा

वामपंथी विचारधारा की एक पाखण्ड यह भी है कि इसके नीति-नियंता निजी जीवन में तो आकंठ भोग-विलास में डूबे रहते हैं और सार्वजनिक जीवन में शुचिता और त्याग की लफ़्फ़ाज़ी करते नज़र आते हैं। पंचसितारा सुविधाओं से लैस वातानुकूलित कक्षों में बर्फ और सोडे के साथ रंगीन पेय से गला तर करते हुए देश-विदेश का तख्ता-पलट करने का दंभ भरने वाले इन नकली क्रांतिकारियों की वास्तविकता सुई चुभे गुब्बारे जैसी है।

वामपंथ: लाल-आतंक के राष्ट्र-विरोधी आचरण से लोकतंत्र को खतरा

वामपंथ जिहादी मानसिकता और विचारधारा से भी अधिक घातक है। ये कुतर्क और अनर्गल प्रलाप के स्वयंभू ठेकेदार हैं! रक्तरंजित क्रांति के नाम पर इसने जितना खून बहाया है, मानवता का जितना गला घोंटा है, उतना शायद ही किसी अन्य विचारधारा ने किया हो। जिन-जिन देशों में वामपंथी शासन है, वहाँ गरीबों-मज़लूमों, सत्यान्वेषियों-विरोधियों आदि की आवाज़ को किस क़दर दबाया-कुचला गया है, उसके स्मरण मात्र से ही सिहरन पैदा होती है।

हताशा, निराशा और लगातार मिल रही हार से बीमार होती कांग्रेस

वर्तमान राजनीति में कांग्रेस आज जिस मुहाने पर खड़ी है उसे देश के हर व्यक्ति, अपने नेता और कार्यकर्ता, यहाँ तक कि हर नेता और राष्ट्रीय नेतृत्व तक को अपने आप पर भी भरोसा नहीं है। असल में हर-जीत के बीच यह एक प्रकार का मानसिक अवसाद है जिसमें शक, शंका, अविश्वास आदि का आना स्वाभाविक है।

दलितों-पिछड़ों के नाम पर भाजपा को कोसने वाले अपने गिरेबान में झांके

वर्तमान दौर अवधारणा आधारित राजनीति का दौर है. प्रत्येक राजनीतिक दल को लेकर एक निश्चित अवधारणा का बन जाना भारतीय राजनीति में आम हो चुका है. देश के यूपी एवं बिहार जैसे राज्यों की राजनीति में जातीय समीकरणों का चुनावी परिणाम में खासा महत्व होता है. लेकिन बिहार में भाजपा को लेकर यह भरसक प्रचार किया गया कि भाजपा सवर्ण-ब्राह्मणवादी आरक्षण विरोधी राजनीतिक दल है.

जातीय तुष्टिकरण से बदहाल उत्तर प्रदेश की क़ानून व्यवस्था

उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में माँ-बेटी के साथ हुई गैंगरेप की वारदात ने एकबार फिर यह साफ़ कर दिया है कि अपने शासन के चार वर्ष बीता लेने के बाद भी सूबे की अखिलेश सरकार प्रदेश में क़ानून व्यवस्था को जरा भी दुरुस्त नहीं कर सकी है, बल्कि इस अवधि में क़ानून का राज लचर ही हुआ है।

अपनी हरकतों से अन्तर्राष्ट्रीय  मंच पर बेनकाब होता पाकिस्तान  

पाकिस्तान की संवैधानिक संस्थाओं ने जिस प्रकार एक आतंकी सरगना की मौत पर काला दिवस मनाया, उसके बाद उससे सकारात्मक सहयोग की आखिरी उम्मीद भी समाप्त हो गयी। पिछले दिनों भारतीय सैनिकों ने एक आतंकी सरगना को कश्मीर में मार गिराया था। इसके पहले पाकिस्तान विश्वमंच पर अपने को भी आतंकवाद से पीड़ित बताता रहा है। बात एक हद तक सही भी है। आतंकवाद उसके लिए अब भस्मासुर बन गया है। ऐसे में उससे यह उम्मीद थी कि वह आतंकी के खात्मे पर खामोश ही रह जाता। तब माना जाता कि वह भी पीड़ित है। लेकिन उसने अपने को खुद ही बेनकाब कर दिया।

दरकती ही जा रही है उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राजनीतिक जमीन

वैसे तो कांग्रेस आज भी कहने को राष्ट्रीय पार्टी ही है लेकिन सबसे अधिक लोकसभा और विधान सभा की सीटों वाले प्रदेश में उसकी स्थिति कैसी है, यह किसी से छिपा नहीं है। अगर राजनैतिक लोकप्रियता और स्वीकार्यता के ग्राफ को समझना है तो उसके लिए यह देखना बेहद जरूरी है कि बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, और महाराष्ट्र जैसे बड़े प्रदेशों में पार्टी का चुनावी प्रदर्शन कैसा रहा है। कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता का आलम यह है पिछले लोकसभा चुनाव में और उसके बाद के सभी विधानसभा चुनावों में, किसी भी राज्य में कांग्रेस की स्थिति दयनीय से अलग नहीं रही है।

भाजपा के अंध-विरोध में एक ‘इतिहासकार’ का ‘कथावाचक’ हो जाना!

एक इतिहासकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वो इतिहास से जुड़े पुख्ता तथ्यों से समाज को रूबरू कराए। लेकिन जब इतिहासकार तथ्यों
और घटनाओं को छोड़कर ‘फिक्शन’ अथवा कहानियों के आधार पर लेख लिखने लगे तो बड़ा आश्चर्य होता है। गत २५ जून २०१६ को एक अंग्रेजी अखबार में इतिहासकार रामचन्द्र गुहा का एक लेख ‘डिवाइड एंड विन’ शीर्षक से छपा था