ब्लॉगवाणी

विमुद्रीकरण : निर्णय एक आयाम अनेक

सचमुच अतुलनीय हैं प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी। अनपेक्षित और चौकाऊ, हर कयास से परे, हर वह साहसिक फैसला लेने को हमेशा तैयार जिससे देश का कोई भला होने वाला हो, जिससे माँ भारती का भाल ज़रा और ऊँचा उठने वाला हो। देश भर में भाजपा-जन जब राजनीति में शुचिता के प्रतीक पुरुष श्री लालकृष्ण आडवाणी का जन्मदिन मना रहे थे, उसी दिन भारत में आर्थिक स्वच्छता के एक बड़े कदम, या यूं कहें

भारत ही नहीं, समूचे विश्व के लिये प्रेरणा के स्रोत हैं अटल बिहारी वाजपेयी

‘हार नहीं मानूंगा, रार ठानूंगा, काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ’ जैसीे कविताओं से सभी के ह्रदय को जीतने वाले महान भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय परिप्रेक्ष्य में हुए, जिन्होंने राजनीति के साथ साहित्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी चलाकर हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया और पूरी निष्ठा से संघ के कार्य में जुटकर देश को आगे ले जाने में अपना बहुमूल्य योगदान देना शुरू किया। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पण्डित

अटल बिहार वाजपेयी : एक कवि-ह्रदय राजनेता

अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर, 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर के शिंके का बाड़ा मुहल्ले में हुआ था। उनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी अध्यापन का कार्य करते थे और माता कृष्णा देवी घरेलू महिला थीं। अटलजी अपने माता-पिता की सातवीं संतान थे। उनसे बड़े तीन भाई और तीन बहनें थीं। अटलजी के बड़े भाइयों को अवध बिहारी वाजपेयी, सदा बिहारी वाजपेयी तथा प्रेम बिहारी वाजपेयी के नाम

दीन दयाल उपाध्याय के विचारों में अन्तर्निहित है मानव-कल्याण का मार्ग

यह वर्ष देश के लिए दीन दयाल जन्म शताब्दी के रूप में मनाने का अवसर है। भारतीय जनता पार्टी इसे गरीब कल्याण वर्ष के रूप में मना रही है। वहीँ देश के तमाम विचारशील संगठन इस अवसर पर अनेक व्याख्यानमाला, कार्यक्रम, सेमीनार आदि का आयोजन कर रहे हैं। इसी क्रम में दीन दयाल शोध संस्थान द्वारा ‘दीन दयाल कथा’ कार्यक्रम का आयोजन देश में चार स्थानों पर करने की योजना बनाई गयी है। इसकी

बहुत याद आयेंगे चो रामास्वामी

मोदी को मौत का सौदागर सबसे पहले 2007 में कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी ने कहा था। लेकिन 2007 के पांच वर्ष बाद 2012 में एकबार फिर एक क्षण ऐसा आया जब किसी ने मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहा था। ऐसा कहने वाला कोई और नहीं नरेंद्र मोदी के अपने दोस्त और तमिल सप्ताहिक पत्रिका तुगलक के संपादक चो रामास्वामी थे। फर्क सिर्फ इतना था कि 2007 में सोनिया गांधी ने मोदी से नफरत में आकंठ डूबकर

क्या अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी की हत्या के बारे में झूठ बोले थे फिदेल कास्त्रो ?

क्रांतिकारी फिडेल कास्त्रो के निधन के बाद क्यूबा की क्रांति और उनको लेकर कई लेख लिखे गए। खासतौर पर अमेरिका में। अमेरिका में तो फिडेल कास्त्रो और जॉन एफ कैनेडी पर सैकड़ों किताबें लिखी गईं। कास्त्रो के निधन के बाद अब एक बार फिर से उनपर लगातार लेख लिए जा रहे हैं। किताबें भी आएंगी ही नए खुलासे भी होंगे, तथ्य भी सामने आ सकते हैं। दशकों तक फिडेल के क्यूबा और अमेरिका में

अगर सावरकर न रोकते तो संगीत छोड़ ही चुकी थीं लता मंगेशकर!

सुर-साम्राज्ञी भारत रत्न लता मंगेशकर के प्रशसंक, उनका सम्मान करने वाले तो इस देश और दुनिया में करोड़ो होंगे। लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि लता मंगेशकर किन लोगों को पसंद करती हैं, किनका सम्मान करती हैं और किसने उन्हें संगीत क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया ? यतीन्द्र मिश्र की किताब ‘लता सुर-गाथा’ यह राज खोलती है। हिंदी के कवि, सम्पादक और सिनेमा के अध्येता यतीन्द्र मिश्र ने लता

लोकमंथनः बौद्धिक विमर्श में एक नई परंपरा का प्रारंभ

भोपाल में संपन्न हुए लोकमंथन आयोजन के बहाने भारतीय बौद्धिक विमर्श में एक नई परंपरा का प्रारंभ देखने को मिला। यह एक ऐसा आयोजन था, जहां भारत की शक्ति, उसकी सामूहिकता, बहुलता-विविधता के साथ-साथ उसकी लोकशक्ति और लोकरंग के भी दर्शन हुए। यह आयोजन इस अर्थ में खास था कि यहां भारत को भारतीय नजरों से समझने की कोशिश की गयी। विदेशी चश्मों और विदेशी

अप्रासंगिक हो चुके कानूनों को ख़त्म करने की जरूरत

26 नवंबर 1949 को हमारा संविधान बनकर तैयार हुआ था। लिहाजा इसे देश में संविधान दिवस के तौर पर याद किया जाता है। आज जब हम इस दिवस को संविधान दिवस के रूप में याद कर रहे हैं तो हमे इसके बहुआयामी पक्षों पर विचार करते हुए याद करने की जरूरत है। आजादी से पूर्व एवं आजादी के बाद देश में जरूरत के अनुरूप तमाम कानून बनाए गए और उन कानूनों को लागू भी किया गया। लेकिन बड़ा

राष्ट्र-निर्माण के आगे निजी सुख-दुःख का नहीं होता महत्व

राजनीति संभावनाओं का खेल है। राजनीति में न तो कोई किसी का स्थाई मित्र होता है, न शत्रु। यदि इस सिद्धांत को सत्य मान भी लिया जाय तो भी यह कहना अनुचित न होगा कि हर दल के अपने कुछ सिद्धांत, अपनी-अपनी मूल प्रकृति, अपने-अपने मतदाता-वर्ग होते हैं और ये सब एक दिनों में नहीं बनता, बल्कि वर्षों में उनकी अपनी एक पहचान और छवि बनती है। अगर विशिष्ट चाल-चरित्र-चेहरे की बात बेमानी भी हो तो