चीनी आक्रामकता का कूटनीतिक जवाब है पीएम मोदी की वियतनाम यात्रा!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वियतनाम यात्रा दोनों देशों की रणनीतिक और आर्थिक साझेदारी को नया मुकाम देने की दिशा में एक बहुआयामी पहल है। इस यात्रा से जहां दोनों देशों के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत को सहेजने में मदद मिलेगी, वहीं कूटनीतिक तौर पर चीन की बढ़ती आक्रामकता पर लगाम कसने में भी यह यात्रा सहायक सिद्ध होगी। बदलते वैश्विक परिदृश्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह यात्रा जितना अधिक व्यापारिक व कारोबारी लिहाज से महत्वपूर्ण है, उतना ही कूटनीतिक और सामरिक दृष्टि से भी इसका महत्व है। आर्थिक व कारोबारी साझेदारी पर नजर दौड़ाएं तो भारत और वियतनाम ने 12 समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इस समझौते के तहत दोनों देशों ने रक्षा, अंतरिक्ष, साइबर सुरक्षा और आईटी क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने का संकल्प व्यक्त किया है, वहीं जहाजरानी क्षेत्र में सूचनाओं का आदान-प्रदान करने की भी महती घोषणा की है। इन समझौतों से भारत-वियतनाम को व्यापक आर्थिक साझेदारी की उर्वर जमीन तैयार होगी वहीं सामरिक मोर्चे पर चीन के खिलाफ किलाबंदी भी मजबूत होगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन से पहले वियतनाम की यात्रा चीन के लिए एक कड़ा संदेश यानी ‘जैसे को तैसा’ वाला सबक है। प्रधानमंत्री का यह कदम ठीक उसी प्रकार है जिस तरह चीन के नेता भारत दौरे से पहले भारत पर दबाव बनाने के लिए पाकिस्तान की यात्रा करते हैं। उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में भारत और वियतनाम कुटनीतिक, व्यापारिक व सामरिक साझेदारी का एक नया अध्याय लिखेंगे और समान रणनीतिक हित के मुद्दों पर एक-दूसरे के पूरक बनेंगे।

समझौते के तहत भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने वियतनाम को न्हा त्रांग की दूरसंचार विश्वविद्यालय में साॅफ्टवेयर पार्क की स्थापना के लिए 50 करोड़ अमेरिकी डाॅलर का ऋण देने का एलान किया है। इस मदद से वियतनाम को साॅफ्टवेयर इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने में मदद मिलेगी और शिक्षा की प्रगति को पंख लगेगा। दोनों देशों ने द्विपक्षीय वाणिज्यिक संबंधों को नई ऊर्जा देने के लिए वर्ष 2020 तक 15 अरब डाॅलर का व्यापारिक लक्ष्य सुनिश्चित किया है। यह लक्ष्य इसलिए महत्वपूर्ण है कि भूमंडलीकरण के बावजूद भी भारत-वियतनाम के बीच द्विपक्षीय व्यापार बहुत कम है। हालांकि गौर करें तो फिर भी व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में है। अच्छी बात यह है कि दोनों देशों ने व्यापार व कारोबार में तेजी लाने के लिए एक-दूसरे के यहां निवेश बढ़ाने का संकल्प व्यक्त किया है। वियतनाम ने हवाई एवं रक्षा संबंधी उत्पादन में अभिरुचि दिखायी है, तो वहीं भारत की एल एंड टी कंपनी वियतनाम के तटरक्षक बल के लिए उच्च गति वाली अपतटीय गश्ती नौकाओं का निर्माण करने का जिम्मा ली है। दोनों देशों ने संयुक्त राष्ट्र शांतिरक्षा मामलों में सहयोग के कार्यक्रम संबंधी एक समझौते पर भी हस्ताक्षर किए हैं। कुल मिलाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वियतनाम की इस एक दिनी यात्रा की सफलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दोनों देशों ने संबंधों में मिठास घोलने के लिए 2017 को ‘मित्रता वर्ष’ के रुप में मनाने का निर्णय किया है।

अतीत में जाएं तो ऐतिहासिक काल से दोनों देशों के बीच उत्कृष्ट द्विपक्षीय संबंध रहा है और दोनों देश लंबे समय से ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व सामरिक संबंधों के डोर से बंधे हुए हैं। दोनों देशों ने औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ संघर्ष किया है और दोनों ही ‘नाम’ के सदस्य हैं। जिस समय वियतनाम फ्रांसीसी उपनिवेश के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था, उस समय भारत ने उसका भरपूर सहयोग किया। कंबोडिया के ख्मेर राॅग शासन के विरुद्ध भी भारत ने वियतनाम का समर्थन किया। भारत ने 2008-09 के लिए यूएनएससी की अस्थायी सीट के लिए वियतनाम की उम्मीदवारी का समर्थन किया। भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने 1954 में वियतनाम की यात्रा की तथा वियतनामी प्रमुख हो-चि-मिन्ह 1958 में भारत आए। जहां तक आर्थिक-कारोबार का संबंध है, तो द्विपक्षीय सहयोग के लिए संस्थागत प्रक्रिया के रुप में दोनों देश एक आर्थिक, वैज्ञानिक व प्रौद्योगिकी सहयोग के लिए वर्षों पहले संयुक्त आयोग की स्थापना कर चुके हैं। उसी का नतीजा है कि भारत-वियतनाम द्विपक्षीय व्यापार विगत वर्षों में तेजी से प्रगति कर रहा है। बता दें कि इसके क्रियान्वयन के लिए कार्यवाही योजना पर 2004 में हस्ताक्षर किए गए थे। दोनों देशों द्वारा 2003 के समझौते में अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर एकदूसरे के हितों के संरक्षण में सहायता देने के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा अन्य अंतराष्ट्रीय समुदाय में एक-दूसरे का मदद का भरोसा दिया जा चुका है और अच्छी बात यह है कि दोनों एकदूसरे की कसौटी पर खरा उतर रहे हैं।

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वियतनाम लगातार भारत के नाभिकीय उर्जा के शांतिपूर्ण प्रयोग के रुख का समर्थन करता रहा है और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थक है। वहीं भारत भी विश्व व्यापार संगठन में वियतनाम के प्रवेश का समर्थन किया है। दोनों देश गंगा-मेकांग सहयोग में भी शामिल है। दोनों देश निवेश में रुचि दिखा रहे हैं और उसी का नतीजा है कि आज आसियान में वियतनाम भारतीय विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का सर्वाधिक प्राप्तकर्ताओं वाले देशों में शुमार हो गया है। दोनों देश ऊर्जा के क्षेत्र में भी बढ़-चढ़कर एकदूसरे का सहयोग कर रहे हैं। वियतनाम उर्जा समृद्ध देश है वहीं भारत को उर्जा की अधिक आवश्यकता है। ऐसे में दोनों देश उर्जा क्षेत्र में एकदूसरे का सहयोग कर लाभान्वित हो सकते हैं। तेल और गैस के उत्पादन में वियनताम एक अग्रणी देश है और उसके समर्थन-सहयोग से भारत की ओएनजीसी कंपनी वहां तेल व गैस की खोज में लगी हुई है। ओएनजीसी और पेट्रोवियतनाम पेट्रोलियम भागीदारी समझौता कर चुके हैं। उल्लेखनीय है कि वियतनाम ने भारत की तीन परियोजनाओं में 26 मिलियन डाॅलर का निवेश कर रखा है। इसमें ओएनजीसी, एनआइवीएल, नगोन काॅफी, टेक महिंद्रा एवं सीसीएल शामिल हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी दोनों देश एकदूसरे का सहयोग कर रहे हैं। भारत सरकार प्रत्येक वर्ष वियतनामी छात्रों और शोधकर्ताओं को भारतीय संस्थाओं में अध्ययन के लिए हजारों हजारों छात्रवृत्तियां प्रदान कर रही हैं। इसके अतिरिक्त भारत वियतनाम के आईटी क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने में सहायता कर रहा है। मौजुदा समय में भारत तेजी से ज्ञान अर्थव्यवस्था के रुप में उभर रहा है और यह ज्ञान क्षेत्र में वियतनाम के मानव संसाधन क्षेत्र को प्रशिक्षित कर सकता है।

बदलते वैश्विक परिदृश्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह यात्रा जितना अधिक व्यापारिक व कारोबारी लिहाज से महत्वपूर्ण है, उतना ही कूटनीतिक और सामरिक दृष्टि से भी इसका महत्व है। आर्थिक व कारोबारी साझेदारी पर नजर दौड़ाएं तो भारत और वियतनाम ने 12 समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इस समझौते के तहत दोनों देशों ने रक्षा, अंतरिक्ष, साइबर सुरक्षा और आईटी क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने का संकल्प व्यक्त किया है, वहीं जहाजरानी क्षेत्र में सूचनाओं का आदान-प्रदान करने की भी महती घोषणा की है। इन समझौतों से भारत-वियतनाम को व्यापक आर्थिक साझेदारी की उर्वर जमीन तैयार होगी वहीं सामरिक मोर्चे पर चीन के खिलाफ किलाबंदी भी मजबूत होगी।

इन सबके अलावा गौर करें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वियतनाम यात्रा शक्ति संतुलन साधने की दिशा में एक परिणामकारी कदम है। दोनों देशों के बीच समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में असीम संभावनाएं हैं। दोनों देश एक-दूसरे की मदद से समुद्री मार्गों को सुरक्षित कर सकते हैं और साथ ही समुद्री डकैतियों को रोक सकते हैं। गौरतलब है कि वियतनाम अपने ‘काॅन-रैन्थ-हार्बर’ में सैनिक अड्डा स्थापित करने के लिए भारत को आमंत्रित कर चुका है। यह अड्डा पहले सोवियत अड्डा था। अगर भारत इसमें रुचि दिखाता है तो निःसंदेह दक्षिण चीन सागर में चीनी गतिविधियों पर नजर रखने में मदद मिलेगी। यह तथ्य है कि भारत और वियतनाम दोनों दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती गतिविधियों को लेकर चिंतित हैं। दक्षिण चीन सागर के कुछ द्वीपों को लेकर चीन व वियतनाम के बीच तनातनी किसी से छिपी नहीं है। वियतनाम का कहना है कि ऐतिहासिक रुप से इस क्षेत्र पर उसका दावा है। उसके मुताबिक 17 वीं शताब्दी तक पैरासेल्स और स्पार्टलेज उसके अधीन थे। वियतनाम का तर्क है कि जब 1940 तक चीन द्वारा इस क्षेत्र पर अपना दावा नहीं जताया गया तो फिर वह किस मुंह से अब इस पर दावा जता रहा है। गौरतलब है कि 1947 में चीन ने पैरासेल्स को वियतनाम से छिन लिया और इसे बचाने में तकरीबन 6 दर्जन वियतनामी सैनिक शहीद हो गए। 1988 में भी दोनों देशों के बीच संघर्ष हुआ जिसमें कई मछुवारे मारे गए। सच कहें तो आज की तारीख में  दक्षिण चीन सागर में चीन के विस्तार के कारण वियतनाम दबाव में है। देखा भी गया कि पिछले दिनों उसने दक्षिण चीन सागर मसले पर अंतर्राष्ट्रीय अदालत के फैसले को मानने से इंकार कर दिया। चीनी राष्ट्रपति शी चिनपिंग ने धमकी भरे अंदाज में कहा कि उनका देश किसी भी सूरत में अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण के फैसले को स्वीकार नहीं करेगा।

उल्लेखनीय है कि सभी तथ्यों के आलोक में ही पांच सदस्यीय अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण ने सागर पर उसके दावे का खारिज किया और उसे दोषी ठहराते हुए कहा कि उसने इस इलाके में निर्माण करके नियमों का उलंघन किया है और फिलीपींस को समुद्र से तेल निकालने से रोका है। चीन की हठधर्मिता को देखते हुए वियतनाम का चिंतित होना लाजिमी है। लिहाजा ऐसे में वह अपने बचाव के लिए भारत के पाले में खड़ा होना चाहता है। चीन के दबाव से बचने के लिए वह 2011 से ही भारत से ब्रह्मोस मिसाइल खरीदने को आतुर है। चूंकि भारत अब एमटीसीआर का पूर्णकालिक सदस्य बन चुका है, ऐसे में वह वियतनाम से ब्रह्मोस मिसाइल का सौदा कर सकता है। अगर भारत वियतनाम को ब्रह्मोस मिसाइल बेचता है तो निःसंदेह चीन की परेशानी बढ़ेगी। यह भी उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन से पहले वियतनाम की यात्रा चीन के लिए एक कड़ा संदेश यानी ‘जैसे को तैसा’ वाला सबक है। प्रधानमंत्री का यह कदम ठीक उसी प्रकार है जिस तरह चीन के नेता भारत दौरे से पहले भारत पर दबाव बनाने के लिए पाकिस्तान की यात्रा करते हैं। उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में भारत और वियतनाम कुटनीतिक, व्यापारिक व सामरिक साझेदारी का एक नया अध्याय लिखेंगे और समान रणनीतिक हित के मुद्दों पर एक-दूसरे के पूरक बनेंगे।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)