वामपंथ

सावरकर ही नहीं अंबेडकर के खिलाफ भी है जेएनयू की लेफ्ट-यूनिटी

भारत में सावरकर, अम्बेडकर और वामपंथ तीनों की बहस एक कालखंड में पैदा हुई बहस है, जो आज भी प्रासंगिक है। सावरकर की राष्ट्रवादी विचारधारा वामपंथियों के निशाने पर तब भी थी, आज भी है। वहीँ अम्बेडकर, सावरकर की हिन्दू एकजुटता के अभियान से सहमत थे जबकि अम्बेडकर वामपंथियों की जमकर आलोचना करते थे। अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि वामपंथी विचारधारा संसदीय लोकतंत्र के

जेएनयू चुनाव: वामगढ़ में हिली वामपंथियों की जमीन

यह आर-पार की लड़ाई है। महाभारत याद करिए। एक तरफ पांच पांडव, जिनके साथ केवल सत्य यानी नारायण, वह भी विरथ, हथियार न उठाने की प्रतिज्ञा के साथ, और दूसरी तरफ, तमाम महारथी, अतिरथी, रथी एक साथ, भीषणतम हथियारों के साथ। इस बार का जेएनयू चुनाव भी कुछ ऐसा ही है। एक तरफ राष्ट्रवाद की ध्वजा लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और दूसरी ओर लफ्फाज़ एवं झूठे वामपंथियों का एका। मज़े की बात तो यह है कि कल तक एक-दूसरे को पानी पी-पीकर कोसने वाले…

कॉमरेड कृष्णा सोबती की असहिष्णुता, संघियों से न कराओ विमोचन!

असहिष्णुता का मुद्दा अभी पुराना नहीं हुआ है। यह मुद्दा खूब उछाला गया था। राष्ट्रवादी विचारधारा के विरोधी खेमे ने ‘असहिष्णुता’ शब्द को अन्तराष्ट्रीय बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। उनका आरोप था कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। खैर, यह देश असहिष्णु है कि नहीं इसपर खूब बहस हो चुकी है लेकिन इस देश के बौद्धिक संस्थानों में पूर्व की कांग्रेसी सरकारों एवं बाहर के आयातित फंड पर अकादमिक संस्थानों के सहारे पलने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी जरुर असहिष्णु हैं।

वामपंथी क्रांतिकारियों के गढ़ जेएनयू का सच!

जब जेएनयू से ख़बर आयी कि एक वामपंथी नेता ने अपने ही साथ पढ़नेवाली छात्रा-कार्यकर्ता के संग बलात्कार किया है, तो सच पूछिए मुझे आश्चर्य तक नहीं हुआ। मनोविज्ञान के मुताबिक जब आप लगातार दुखद और खौफनाक घटनाओं से दो-चार होते रहते हैं, तो धीरे-धीरे उसके प्रति एक स्वीकार्यता का भाव आपमें आ जाता है। जेएनयू में वामपंथियों द्वारा बलात्कार न पहली और न ही आखिरी घटना है।

दक्षिणपंथी साहित्यकारों के साथ अपना नाम देखते ही भड़क गईं कॉमरेड कृष्णा सोबती, खुली वामपंथी सहिष्णुता की पोल!

बौद्धिक आतंकवाद शब्द पर पिछले लंबे समय से मीडिया और समानान्तर सोशल मीडिया पर चर्चा हो रही है। इस विषय में अभी तक अपनी कोई राय नहीं बना पाया हूं, लेकिन बौद्धिक सवर्णवाद को लेकर अब अपनी एक धारणा बन गई है। इस देश का कम्यूनिस्ट तबका खुद को बौद्धिक सवर्ण समझता है और राष्ट्रवादी विचारकों को जिसे आजकल दक्षिणपंथी कहने का चलन है, अछूत समझता है।

वामपंथियों का चर्च प्रेम: झूठी रिपोर्ट्स दिखाकर बदलते हैं ‘पब्लिक परसेप्शन’

जून 2016 में आल इंडिया पीपुल्स फोरम की 8 सदस्यीय टीम ने छत्तीसगढ़ के चार जिलों बस्तर ,दंतेवाड़ा ,सुकमा ,बीजापुर का एक दौरा कर एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट तैयार की। ईसाई मिशनरी फंडेड इस वामपंथी संगठन की अगुवाई अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन की सचिव कविता कृष्णन कर रही थीं।

कुतर्कों की बुनियाद पर टिका वामपंथी बुद्धिजीवियों का विलासी-विमर्श

हिटलर के प्रचारक गोयबेल्स ने ये उक्ति यूँ ही नहीं कही होगी कि अगर किसी झूठ को सौ बार बोला जाय तो सामने वाले को वो झूठ भी सच लगने लगता है। भारत के संदर्भ में अगर देखा जाय तो आज ये उक्ति काफी सटीक नजर आती है। भारतीय राजनीति एवं समाज के विमर्शों में दो ऐसे शब्दों का बहुतायत प्रयोग मिलता है, जिनकी बुनियाद ही कुतर्कों और झूठ की लफ्फाजियों पर टिकी हुई है। ये दो शब्द हैं दक्षिणपंथ एवं फासीवाद।

वाम-विलासियों के ‘अंतहीन’ विमर्श का अंत जरुरी

हमारे सभ्य समाज में सबसे महत्वपूर्ण अगर कुछ है तो वह ‘विमर्श’ है। बहस-मुबाहिसा, शास्त्रार्थ, वाद-विवाद, मतैक्य-मतभिन्नता, सहमति-असहमति, पक्ष-विपक्ष, पंचायत आदि के बिना किसी नतीजे पर पहुचना केवल तानाशाही में ही संभव है। लोकतंत्र और सभ्य समाज में तो मानवता के लिए यह प्रक्रिया एक वरदान ही है। अभिव्यक्ति की आज़ादी का सबसे सुन्दर रूप है हर पक्ष को सुनना, उन्हें अपनी बात रखने देना, विरोधी विचारों को समादर की दृष्टि से देखना।